Hindi Short Story and Hindi Moral Story on “Gandhari” , “गांधारी” Complete Hindi Prernadayak Story for Class 9, Class 10 and Class 12.

गांधारी

Gandhari

 

 

गांधार देश के राजा सुबल के बेटे का नाम शकुनि और बेटी का नाम गांधारी था| बेटा जैसा कुटिल, क्रूर और कपटी था, बेटी वैसी ही सती-शिरोमणि थी| गांधारी का विवाह धृतराष्ट्र के साथ हुआ था| ये भारतीय पातिव्रत की सजीव मूर्ति हैं | जिस समय इन्हें मालूम हुआ कि पतिदेव के आंखें नहीं हैं उसी समय उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बंधवा ली| सोचा कि आंखों का सुख जब मेरे पति को प्राप्त नहीं है तब मैं ही इन आंखों का क्या करूंगी| इस प्रकार इन्होंने आंखों के रहते हुए भी उनका उपयोग करना बंद कर दिया| धन्य इस त्याग को| संसार के किसी समाज में हमको इसकी समता करने की सामग्री नहीं मिलती| स्त्री को संतान पर बड़ी ममता होती है, किंतु गांधारी की प्रतिज्ञा को धन्य है| उन्होंने संतान का मुख देखने को भी आंखों की पट्टी नहीं हटाई|

 

एक राजकुमारी का अंधे पुरुष को पतिरूप में स्वीकार करना साधारण साहस की बात नहीं है| गांधारी ने अपने जीवन में कभी इस बात को मुंह पर आने तक नहीं दिया कि एक अंधे के साथ गठबंधन करके उन्होंने अपना जीवन नष्ट कर डाला है| वे जीवन-भर तन-मन से पति की सेवा करती रहीं| उनका हृदय भी उदार था| संतान के अनुचित आग्रह को उन्होंने न्याय नहीं माना|

 

एक बार भूखे-प्यासे व्यासजी गांधारी के यहां पहुंचे तो उन्होंने महर्षि का खासा आतिथ्य किया| महर्षि के प्रसन्न होकर वरदान मांगने के लिए कहने पर गांधारी ने बलिष्ठ और गुणवान सौ पुत्र मांगे|

 

कुछ दिनों में गांधारी के गर्भ रह गया| दो वर्ष बीत जाने पर भी संतान न होने से गांधारी चिंतित थीं कि उन्हें कुंती के पुत्रवती होने की सूचना मिली| इससे खीझकर उन्होंने अपने पेट पर मुक्का दे मारा तो लोहे की भांति कड़ा मांस का लोथड़ा बाहर निकल आया| योगी व्यासजी सब हाल जानकर वहां पर आ गए| उन्होंने जल्दबाजी के लिए गांधारी को मीठी फटकार बतलाई| इसके बाद वे ऐसा प्रबंध कर गए जिससे उस लोथड़े से सौ पुत्र हो जाएं|

 

स्त्री-स्वभाव-सुलभ ईर्ष्या का रूप हमने गांधारी में इसी अवसर पर देखा है| धृतराष्ट्र के अंधे होने के कारण उनका राज्याधिकार मारा गया था| गांधारी चाहती थीं कि कम-से-कम उनकी संतान तो ज्येष्ठ होकर गद्दी की हकदार हो जाए| किंतु कुंती के पुत्रवती हो जाने से गांधारी के मनोरथ वृक्ष की जड़ उखड़ गई| इस अवसर के सिवा गांधारी ने कभी कुंती से इर्ष्या नहीं की|

 

गांधारी ने बार-बार राजा धृतराष्ट्र को चेतावनी दी है कि पाण्डवों को उनका हिस्सा देकर कौरव-कुल की रक्षा कर लेने में ही कुशल है| दुर्योधन को कई बार उन्होंने खासी फटकार बताई है| वह युद्धभूमि में जाने को तैयार हुआ तो माता से विजय का आशीर्वाद मांगने आया| बड़ा ही नाजुक समय था| और कोई स्त्री होती तो सोचती कि बड़ा लड़का-युवराज-संग्राम करने जा रहा है| क्या जाने, लौटेगा कि नहीं| संतान की भलाई चाहना ही माता का कर्तव्य है| अतएव यह कुपूत हो या सपूत, इसे आशीर्वाद देकर ही युद्धभूमि में भेजो| परंतु वाह री गांधारी माता, तूने ऐसे समय पर भी न्याय और धर्म का ही पक्ष लिया| साफ कह दिया कि बेटा, तेरा आशीर्वाद मांगना ठीक है, किंतु धर्म के बंधन में मेरे मुंह में ताला लगा दिया है| मैं आशीर्वाद देती, अगर तूने मेरी बात मानी होती| मैं तुझे जरूर आशीर्वाद देती अगर पाण्डवों ने तेरे साथ कुछ अनुचित बरताव किया होता| किंतु यहां तो बात ही उलटी है| मैं तुझे विजय का आशीर्वाद देकर शिष्ट-परंपरा को नहीं तोड़ सकती|

 

गांधारी को खबरें मिलती थीं कि आज रणक्षेत्र में उनका अमुक पुत्र मारा गया, आज अमुक घायल हुआ| वे कलेजे पर पत्थर रखकर सब सुनतीं और सहन करती थीं| कैसे न करतीं| सत्य और धर्म की बेड़ियां जो उनके पैरों में पड़ी हुई थीं| पुत्रों के मारे जाने से दुखी होकर यदि वे शाप दे डालती तो निस्संदेह पाण्डवों का सत्यानाश हो जाता| किसी के करे-धरे कुछ न होता| किंतु शाप देतीं किस तरह? हर घड़ी तो उनकी दृष्टि के आगे पुत्रों की करनी का चित्र मौजूद रहता था| पर सहनशीलता की भी एह हद होती है| कुरुक्षेत्र का संग्राम सम्पत हो जाने पर जिस समय गांधारी ने व्यासजी के वरदान से प्राप्त दूर-दृष्टि से कुरुक्षेत्र के वीभत्स निधन का भयावना दृश्य प्रत्यक्ष देखा उस समय उस सती के धैर्य का बांध टूट गया| उसने अधीर होकर कहा – श्रीकृष्ण, क्या तुम इस गृह-कलह को शांत नहीं कर सकते? क्या यह काम तुम्हारी शक्ति से बाहर का था? तुम तो अनंत शक्तिशाली हो| तुम चाहते तो बापुरे दुर्योधन की तुम्हारे आगे एक न चलती| तुम्हारे प्रभाव में आकर वह तुम्हारी प्रत्येक बात को मानता| किंतु तुमने उपेक्षा कर दी| इसी से यह सत्यानाश हुआ| गृह-कलह होने से जो दुर्दशा कौरव-पाण्डवों की हुई वही तुम यादवों को भी होगी|

 

देने को तो गांधारी ने यह शाप दे दिया, किंतु पीछे से वे पछतावा करने लगीं| शाप देने से धर्म की – तपस्या की- हानि होती है| इतने दिनों में उन्होंने बड़ी कठिनाई से जिस धर्म-धन का संचय किया था उसका इस तरह अपव्यय हो जाने से वे बहुत ही दुखी हुईं| किंतु विधाता के विधान को कौन उलट सकता है? जिस सती ने कभी स्वप्न तक में किसी का बुरा नहीं चेता उसका वचन क्योंकर खाली जाता? श्रीकृष्ण ने इस अभिशाप को नतमस्तक हो स्वीकार किया| इस अवसर पर यदि गांधारी शांत बनी रहतीं – क्रोध को पी जातीं – तो उनका मानव-चरित्र अपूर्ण रह जाता| मानव-स्वभाव-सुलभ दुर्बलता ने ही उनको देव-कोटि में जाने से बचा लिया है| इससे तनिक पहले उन्होंने भीमसेन से जवाब तलब किया है कि तूने अपने भाई दू:शासन का रक्त क्यों पिया, दुर्योधन को अधर्म-युद्ध में क्यों मारा और क्या मेरा ऐसा एक भी बेटा न था जिसका अपराध कम समझकर तू उसे जीता छोड़ देता| भीमसेन ने उत्तर दिया है कि दु:शासन का खून मेरे हाथों और होठों में ही लगा रह गया, गले के नीचे नहीं उतरा, प्रतिज्ञा पूरी करने को मुझे ऐसा करना पड़ा| अधर्म-युद्ध किए बिना दुर्योधन को मैं जीत ही न सकता था| अस्तु यदि व्यासजी पहले से पहुंचकर गांधारी को समझा न देते तो वे युधिष्ठिर को शाप दिए बिना न रहतीं| आंखों पर बंधी हुई पट्टी से छनकर उनकी दृष्टि तनिक युधिष्ठिर के हाथों के नखों पर पड़ जाने से नाखून की रंगत काली पड़ गई थी| उस समय उनकी दृष्टि से कैसी ज्वाला बरस रही थी, यह इसी से समझा जा सकता है| व्यासजी के समझाने पर उन्होंने स्वीकार किया है कि दुर्योधन आदि की भांति मुझे पाण्डवों पर भी कृपा रखनी चाहिए|

 

गांधारी के सभी लड़के मारे गए, बेटी दु:शला विधवा हो गई, राज-पाट पाण्डवों के अधिकार में चला गया, फिर भी वे महलों में रहती हैं अपने पति बूढ़े धृतराष्ट्र की सेवा-शुश्रूषा करती हैं और अतिथि-अभ्यागतों को दान-दक्षिणा देती हैं| यह ठीक है कि महाराज युधिष्ठिर की कृपा से उनको किसी बात की कमी नहीं है, प्रत्येक व्यक्ति उनकी आज्ञा का पालन करने को तैयार रहता है फिर भी गांधारी यह कैसे भूल जाएं कि उनके सौ बेटे नहीं थे, राज-पाट पर उनका एकाधिपत्य नहीं था| इसको वे सोचती थीं, पर इसके लिए पाण्डवों को दोष नहीं देती थीं| दोष देती थीं अपने भाग्य को| भीमसेन की उद्दण्डता से दुखी होकर एक बार धृतराष्ट्र और गांधारी ने भोजन करना बंद कर दिया| व्यासजी की सलाह से अब वे घर-द्वार छोड़कर वनवास को जाएंगे| यह खबर पाकर युधिष्ठिर बहुत घबराए| दौड़े-दौड़े चाचा-चाची के पास पहुंचे| उनके पैरों पर गिरकर गिड़गिड़ाए| युधिष्ठिर को उन्होंने समझाया कि तुम्हारे व्यवहार से मुझे रत्ती-भर भी असंतोष नहीं| तुमने ऐसा बरताव रखा है जिसमें हम लोगों को यह मालूम ही न होने पावे कि हम अनाथ हैं, हमारे बेटे मारे गए हैं और हमारा जीवन दूसरों की कृपा पर अवलंबित है| किंतु अब हमारा चौथापन है| इसलिए सबसे ममता छोड़कर भगवान का भजन करने में ही हमारा कल्याण है| तुम्हारे कहने से हम भोजन करना आरंभ किए देते हैं, किंतु अब हम बस्ती में रहेंगे नहीं| उन्होंने यही किया| उनके साथ-साथ कुंती और विदुर भी गए| लोग दूर तक उन्हें पहुचाने गए| जंगल में जाकर उन्होंने कठोर तप किया| वे कंद मूल फल खाते और साधना करते थे| ऐसा करते-करते दैवयोग से एक बार अग्निहोत्र की आग इस सूखे वन में लग गई| चारों ओर धायं-धायं आग जलने लगी| उसी में जेठ-जेठानी के साथ कुंती भी भस्म हो गईं|

 

गांधारी गांधार में उत्पन्न हुईं, कुरुकुल में ब्याही जाकर सौ बेटों की माता हुईं| उन्होंने सब तरह के सूखे भोगे, दान-पुण्य किए, किंतु कुपूतों की करनी से उनके अंतकाल के दिन इस तरह बीते| अधिक संतानें होने से मनुष्य को सुख भी अधिक मात्रा में मिलना चाहिए, किंतु कभी-कभी इसका उलटा देखा जाता है| राजा सगर के आठ हजार बेटे थे| जिस ओर इनका दल निकल जाता था, लोग देखकर घबरा जाते थे| किंतु राजा सगर को इनसे रत्ती-भर भी आराम नहीं मिला| जिस प्रकार अनायास इतने अधिक पुत्रों की उत्पत्ति हुई उसी प्रकार अकल्पित रूप से उन सबका-प्रलय-काल के जीवों की तरह-संहार भी हो गया| राजा सगर हाथ मलते रह गए| संसार का इतना उपकार अवश्य हुआ कि उन्हीं सगर-सुतों के उद्धारार्थ धरातल पर, भगीरथ के प्रयत्न द्वारा, भगवती गंगा का आगमन हुआ| यही हाल गांधारी के बेटों का हुआ| यदि वे धर्मपथ पर चलते तो अपने जनक-जननी को सुख देने के साथ-साथ संसार का भी हित-साधन करते| किंतु जिस प्रकार एकाएक उनकी उत्पत्ति हुई थी उसी प्रकार धड़ाधड़ उनका बंटाढार भी हो गया| बेचारी गांधारी के लिए यह एक स्वप्न-सा हो गया|

 

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