Hindi Short Story and Hindi Moral Story on “Drupad Se Dron Ka Pratishodh” , “द्रुपद से द्रोण का प्रतिशोध” Complete Hindi Prernadayak Story for Class 9, Class 10 and Class 12.

द्रुपद से द्रोण का प्रतिशोध

Drupad Se Dron Ka Pratishodh

 

 

जब पाण्डव तथा कौरव राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गई तो उन्होंने द्रोणाचार्य को गुरु दक्षिणा देना चाहा। द्रोणाचार्य को द्रुपद के द्वारा किये गये अपने अपमान का स्मरण हो आया और उन्होंने राजकुमारों से कहा, राजकुमारों! यदि तुम गुरुदक्षिणा देना ही चाहते हो तो पाञ्चाल नरेश द्रुपद को बन्दी बना कर मेरे समक्ष प्रस्तुत करो। यही तुम लोगों की गुरुदक्षिणा होगी। गुरुदेव के इस प्रकार कहने पर समस्त राजकुमार अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र ले कर पाञ्चाल देश की ओर चले।

पाञ्चाल पहुँचने पर अर्जुन ने द्रोणाचार्य से कहा, गुरुदेव! आप पहले कौरवों को राजा द्रुपद से युद्ध करने की आज्ञा दीजिये। यदि वे द्रुपद को बन्दी बनाने में असफल रहे तो हम पाण्डव युद्ध करेंगे। गुरु की आज्ञा मिलने पर दुर्योधन के नेतृत्व में कौरवों ने पाञ्चाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों पक्षों के मध्य भयंकर युद्ध होने लगा किन्तु अन्त में कौरव परास्त हो कर भाग निकले। कौरवों को पलायन करते देख पाण्डवों ने आक्रमण आरम्भ कर दिया। भीमसेन तथा अर्जुन के पराक्रम के समक्ष पाञ्चाल नरेश की सेना हार गई। अर्जुन ने आगे बढ़ कर द्रुपद को बन्दी बना लिया और गुरु द्रोणाचार्य के समक्ष ले आये।

द्रुपद को बन्दी के रूप में देख कर द्रोणाचार्य ने कहा, हे द्रुपद! अब तुम्हारे राज्य का स्वामी मैं हो गया हूँ। मैं तो तुम्हें अपना मित्र समझ कर तुम्हारे पास आया था किन्तु तुमने मुझे अपना मित्र स्वीकार नहीं किया था। अब बताओ क्या तुम मेरी मित्रता स्वीकार करते हो? द्रुपद ने लज्जा से सिर झुका लिया और अपनी भूल के लिये क्षमायाचना करते हुये बोले, हे द्रोण! आपको अपना मित्र न मानना मेरी भूल थी और उसके लिये अब मेरे हृदय में पश्चाताप है। मैं तथा मेरा राज्य दोनों ही अब आपके आधीन हैं, अब आपकी जो इच्छा हो करें। द्रोणाचार्य ने कहा, तुमने कहा था कि मित्रता समान वर्ग के लोगों में होती है। अतः मैं तुमसे बराबरी का मित्र भाव रखने के लिये तुम्हें तुम्हारा आधा राज्य लौटा रहा हूँ। इतना कह कर द्रोणाचार्य ने गंगा नदी के दक्षिणी तट का राज्य द्रुपद को सौंप दिया और शेष को स्वयं रख लिया।

कालान्तर में पाण्वों ने बहुत सी अन्य विद्याओं का अध्ययन किया। भीमसेन ने बलराम को गुरू मान कर खम्भ-गदा आदि की शिक्षा प्राप्त की। इस समय तक युधिष्ठिर के गुणों कि प्रशंसा देश-देशान्तर में होने लगी। समय आने पर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को युवराज के पद पर आसीन कर दिया।

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