Hindi Poem of Pratibha Saksena “  Antim sharnay”,”अंतिम-शरण्य” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

अंतिम-शरण्य

 Antim sharnay

 

किस विषम परिस्थिति में डाला, विचलित मन काँप-काँप जाता,,

कैसी यह आज्ञा सखे, कि जिसको सुन कर ही मन घबराता!

एक ही वधू, वर पाँच-पाँच, कैसे यह मुख से निकल गया.

वे स्वयं करें अब समाधान कुछ दे फिर से संदेश नया!’

हँस रहे जनार्दन,’अरे सखी, यह कैसा है अद्भुत प्रलाप!

तुम कहो यही है शिरोधार्य, पूरा कर डालो कहा कार्य.

जीवन का ढर्रा रहा वही, मेरी प्रधान महिषियाँ आठ,

तुम घबराई जाती हो क्यों, मिल रहे यहां पति सिर्फ़ पाँच!

यह सब समाज की व्याख्यायें सबके अपने-अपने प्रबंध,

मन में उछाह ले, कर डालो इस नयी कथा का सूत्र-बंध!’

‘तुमको विनोद सूझा, मेरे भीतर है कितना घोर द्वंद्व

अर्जुन को जयमाला डाली फिर और किसी का क्यों प्रयत्न!’

‘देव कुन्ती की संतानों के पिता भिन्न पर उचित सभी!’

‘पर मुझे विवशता कौन, पार्थ में क्या इतनी सामर्थ्य नहीं? ‘

‘पर तुम पीछे क्यों रहो सखी, द्विविधा मुझको लगती विचित्र,

कितने प्रकार के पति होंगे, वे पृथा बुआ के पाँच पुत्र!’

‘उपहास कर रहे, करो तुम्हारी बारी, चाहे जो कह लो!’

‘यह हँसी न कृष्णे, सत्य तत्व की बात आज मन में धर लो!

‘कोई भी अंतिम सत्य नहीं, कुछ भी तो यहाँ तटस्थ नहीं

सापेक्ष सभी प्रिय कृष्णे, और व्यतिक्रम भी होते सदा यहीं!

केवल समाज कल्याण हेतु परिभाषित करने का उपक्रम,

कहलाते अपने को प्रबुद्ध जो, पाले मन में कितना भ्रम!

पतिव्रत? अब से तो पतियों को दे संयम के कुछ नये पाठ

उन्मुक्त ह़दय से, जीवन के तुम ग्रहण करो नित नये भाव!’

‘चुप रहो, अरे निर्लज्ज, कह रहे क्या इसका भी जरा भान

इस तरह अनर्गल कर प्रलाप, क्यों तुम मेरे भर रहे कान!’

कृष्णे, तेरे आशु क्रोध पर आ जाता है बहुत प्यार,

फिर जाने क्य-क्या सोच हृदय में करुणा भर आती अपार,

सुनकर कि’नहीं होगा मुझसे’ हँस उठता है कोई अदृष्ट,

फिर वही कराये बिन, उसका पूरा होता ही नहीं इष्ट!

कैसे समझाऊँ तुझे, कि मेरा कथन नहीं केवल विनोद

यह दृढ़ मन, सजग बुद्धि तू, फिर किस तरह करूँ तेरा प्रबोध.

वरदान मिला है यह कि, पाँच भर्ताओं का लो अमित प्रेम!

यह तो कर्तव्य तुम्हारा हो, जब जिसके सँग हो वही नेम!

संसार यही है, जहाँ चल रहे जीवन के नित-नव प्रयोग,

बुधजन,ज्ञानी जन बतलाते अपने -अपने सबके सँजोग!

तुमको न दोष देगा कोई, है यही सामयिक परम धर्म,

तुम तो प्रबुद्ध हो, स्वयं करो निस्पृह, निशंक कर्तव्य कर्म!

जब पाने ही हैं पाँच पुरुष तो करो व्यर्थ के क्यों विचार!

अर्जुन को पाया है तो फिर स्वीकार करो वे और चार!’

‘मैं बहुत विषम द्विविधा में हूँ, कैसे पूरा कर पाऊँ व्रत

निष्ठाये बँट जायें तो बच पाये कैसे फिर मेरा सत? ‘

‘सखि पाँच हुये तो इससे क्या, अपने में वे हैं सभी एक

वे पाँच, एक ही बने रहें है देवी कुन्ती की यही टेक!

तुम प्रखर, निभा लोगी कृष्णे, उनको अपने विवेक के बल,

जीतना तुम्हें है यह बाज़ी, मेरा सहयोग बने संबल!

वे पाँच अँगुलियां हैं कृष्णे पर मुट्ठी उनकी सदा एक!

सबके अपने-अपने स्वभाव जिनको बाँधेगी डोर एक!

सत? मन की शुद्ध भावना, तुम पावन-चरिता हो याज्ञसेनि

आनन्द और रस भोग विहित, तो नहीं कहाते पाप-श्रेणि!

वह भोग, नहीं अपराध कि कर्तव्यो का हो निर्वाह सतत,

वंचित क्यों रहो कि जीवन में जब नियति खोल कर बैठी पट!

जो अनायास पाया स्वीकारो द्विधा-ग्रस्त मत रहो विरत!

अनुरोध समझ यह समाधान स्वीकार करो तुम शान्त मनस्!’

इस समय परिस्थिति विषम बहुत, कौरवजन का शत्रुता भाव,

उस पर तेरा हठ अर्जुन के जीवन पर क्या होगा प्रभाव?

अति मान्य मातृ – आदेश, कि फिर तेरा आकर्षण दुर्निवार,

इन पाँचो का एकात्म भाव हो जाय न क्षण में क्षार- क्षार!

प्रिय अग्नि-संभवे, तुझको जो मैंने पढ़ पाया है अब तक

तू सचमुच निभा सकेगी उनके विषम काल का संकुल-पथ!

‘पा़ञ्चालि,सरल और अति निर्मल,उन सभी बंधुओँ के स्वभाव.

सिर धारेंगे वे, जो भी तुम दोगी,धारण कर प्रेम-भाव!

यह अनायास आक्रोश छोड़, कर लो विचार हो शान्त-चित्त,

केवल समर्थ ही परंपरा से व्यतिक्रम का पाता सुयोग!

हर बार बदल जाता है नारी और पुरुष का विषम गणित

इन संबंधों के तार और सारा ही उचित और अनुचित!’

‘हर विषम काल में तुम देते आये हो संबल और साथ,

जब घोर निराशायें घेरें, तब लगे कि तुम हो कहीं पास!’

ले कर अशान्त अति आकुल मन,प्रिय मीत,तुम्हारे ही कारण,

अनुबंध कर रही शिरोधार्य, पा आज तुम्हारा आश्वासन.’

करुणा-पूरित नयनों से कुछ क्षण मौन देखते वह प्रिय मुख

‘यह तो कुछ नहीं.. अभी तो…’ कहते सहसा कृष्ण हुये चुप’

सब कुछ ले लिया स्वयं, फिर भी आँका उसको कितना कम कर,

जब-जब झाँका तो यही कहानी लिखी मिली नारी-मन पर!

बह पाता तप्त अश्रु-जल में जीवन का संचित खारापन,

तो फिर रह-रह जगती न चुभन टीसते नहीं दारुण-दंशन

अंतर करुणा से भर आता, आगत का जब करता विचार

पर तेरे आशु क्रोध पर उमड़ा आता उर में अमित प्यार!

बस, बहुत याज्ञसेनी, संयत हो इससे आगे सोच न कुछ.’

मैं जान रहा, पर विवश बहुत हूँ खोल नहीं सकता निज मुख.’

‘मैं प्रस्तुत हूँ, अब तुम्हीं सुनोगे, टेरें जब हो विकल प्राण,

विश्वास बहुत, अपनी कृष्णा को तुम ही दोगे समाधान!’

‘तज राज और रनिवास चला आऊँगा रण हो या अरण्य,

इस प्रीति डोर में बँधा हुआ बन कर तेरा अंतिम-शरण्य!’

 

 

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