Ramayan Katha, Hindi Poranik Katha “Pita ke antim darshan ”, ” पिता के अन्तिम दर्शन” Hindi Dharmik Katha for Class 9, Class 10 and Other Classes

पिता के अन्तिम दर्शन – रामायण कथा 

Pita ke antim darshan – Ramayan Katha 

 

 सुमन्त राजा दशरथ के कक्ष में पहुँचे। उन्होंने देखा कि महाराज पुत्र-वियोग की आशंका से व्याकुल हैं। वे पानी से बाहर निकाल दी गई मछली की तरह तड़प रहे थे। सुमन्त ने उनसे हाथ जोड़ कर निवेदन किया, महाराज! आपके ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा राम सीता और लक्ष्मण के साथ आपके दर्शनों की कामना लिये द्वार पर प्रतीक्षा कर रहे हैं। माताओं एवं अन्य बन्धु-बान्धवों भेंट करने के बाद वे अब आपके दर्शन हेतु आये हुये हैं। उन्हें भीतर आने की आज्ञा दें।

महाराज दशरथ ने धैर्य धारण करते हुए कहा, हे मन्त्रिवर! राम के भीतर आने से पहले आप सभी रानियों समस्त परिजनों को यहाँ बुला लाइये। यह तो निश्चित हो चुका है कि राम वनगमन करेंगे ही। मुझे यह भी ज्ञात है कि राम के वियोग में मेरी मृत्यु भी अवश्यसंभावी है। अतः मैं चाहता हूँ कि इन दोनों महान घटनाओं को देखने हेतु मेरा समस्त परिवार यहाँ उपस्थित रहे।

सुमन्त ने महाराज की आज्ञानुसार सभी रानियों तथा परिजनों को वहाँ बुलवा लिया। उसके पश्चात् राम, सीता तथा लक्ष्मण को भी महाराज के पास ले आये।

हाथ जोड़े हुये राम वहाँ पर उपस्थित अपने पिता और माताओं की ओर बढ़े। राम को इस प्रकार अपनी ओर आता देख महाराज दशरथ उन्हें हृदय से लगाने की अभिलाषा से अपने आसन से उठ खड़े हुये। किंतु अत्यधिक शोक तथा दुर्बल होने के कारण वे केवल एक पग बढ़ाते ही मूर्छित होकर गिर पड़े। पिता की ऐसी दशा देखकर राम और लक्ष्मण ने तत्काल उन्हें सहारा देकर पलंग पर लिटा दिया। महाराज की मूर्छा भंग होने पर राम ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा, हे पिता, आप ही हम सबके स्वामी हैं। कृपा करके आप धैर्य धारण करें और हम तीनों को आशीर्वाद दें कि हम वन में चौदह वर्ष की अवधि व्यतीत करने के पश्चात् पुनः आपके दर्शन करें।

महाराज दशरथ ने आर्द्र स्वर में कहा, पुत्र! तुम्हें वनों में भटकने के लिये भेजने की मेरी कदापि इच्छा नहीं है किन्तु मैं विवश हूँ। अब मैं इससे अधिक क्या कह सकता हूँ कि जाओ, तुम्हारे वनवास का काल कल्याणकारी हो। ईश्वर सदैव तुम्हारी रक्षा करें। मुझे इस बात की भी आशा नहीं है कि तुम्हारे वापस आने तक मैं जीवित रह पाउंगा फिर भी मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि तुम्हारे लौटने पर मैं तुम्हें पुनः देख पाऊँ।

वहाँ पर उपस्थित गुरु वशिष्ठ, महामन्त्री सुमन्त आदि वरिष्ठजनों ने एक बार फिर से कैकेयी को समझाने का प्रयास किया कि वह अपना वर वापस ले ले किंतु कैकेयी अपने इरादों पर अडिग रही।

महाराज दशरथ की इच्छा थी कि राम के साथ चतुरंगिणी सेना और अन्न-धन का कोष भेजने की व्यस्था हो किन्तु राम ने विनयपूर्वक उनकी इस इच्छा को अस्वीकार कर दिया।

अन्त में महाराज ने सुमन्त को आदेश दिया, हे मन्त्रिवर! आप स्वयं उत्तम घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आयें और इन सबको देश की सीमा से बाहर तक छोड़ें।

इतना कहते ही कर राजा विह्वल हो कर रोने लगे। सुमन्त तत्काल ही महाराज की आज्ञा का पालन करने के लिये निकल पड़े।

  

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