Ramayan Katha, Hindi Poranik Katha “Vangaman purv Ram ke Dwara Daan”, ” वनगमन पूर्व राम के द्वारा दान” Hindi Dharmik Katha for Class 9, Class 10 and Other Classes

वनगमन पूर्व राम के द्वारा दान  – रामायण कथा 

Vangaman purv Ram ke Dwara Daan – Ramayan Katha 

 

 बड़े भाई राम की आज्ञानुसार लक्ष्मण गुरु वशिष्ठ के पुत्र सुयज्ञ को अपने साथ ले आये। राम और सीता ने अत्यंत श्रद्धा के साथ उनकी प्रदक्षिणा की। इसके पश्चात् उन्होंने अपने स्वर्ण कुण्डल, बाजूबन्द, कड़े, मालाएँ तथा रत्नजटित अन्य आभूषणों को उन्हें देते हुये कहा, हे मित्र! जनकनन्दिनी सीता भी मेरे साथ वन को जा रही हैं। इसलिये ये अपने कंकण, मुक्तमाला-किंकणी, हीरे, मोती, रत्नादि समस्त आभूषण आपकी पत्नी को दान करना चाहती हैं। आप इन आभूषणों को सीता की ओर से उन्हें आदर तथा नम्रता के साथ समर्पित कर देना। मेरी यह स्वर्णजटित शैया अब मेरे लिये किसी काम का नहीं है अतः इसे भी आप ले जाइये। मेरे मामा ने अत्यंत स्नेह के साथ मुझे यह हाथी दिया था, इसे भी सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं के साथ आप स्वीकार करें।

राम के वनगमन के विषय में ज्ञात होने पर सुयज्ञ के नेत्रों अश्रु भर आये। सजल नेत्रों के साथ राम के द्वारा प्रदान की गई वस्तुओं को उन्होंने ग्रहण किया और आशीर्वाद दिया, हे राम! तुम चिरजीवी होओ। तुम्हारा चौदह वर्ष का वनवास तुम्हारे लिये निष्कंटक और कीर्तिदायक हो। वनवास की अवधि समाप्त होने पर लौटने पर तुम्हें अयोध्या का राज्य पुनः प्राप्त हो।

इस प्रकार आशीर्वाद देकर गुरुपुत्र सुयज्ञ विदा हुये। उसके बाद राम ने अपने सेवकों को, जो कि राम के वनवास से दुखी होकर रो रहे थे, बहुत सारा धन दान में दिया और सान्त्वना देते हुये बोले, तुम लोग यहीं रहकर महाराज, माता कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, भरत, शत्रुघ्न एवं अन्य गुरुजनों की तन मन लगाकर सेवा करना। सदैव इस बात का ध्यान रखना कि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो।

फिर राम ने अपनी समस्त व्यक्तिगत सम्पत्ति को मंगवाकर सीता के हाथों से उसे गरीब, दुःखी, दीन-दरिद्रों में बँटवा दिया।

राम और सीता के द्वारा मुक्त हस्त से दान दिए जाने की चर्चा सारे नगर में दावानल की भाँति फैल गई। उन दिनों अयोध्या के समीपवर्ती एक ग्राम में गर्गगोत्री त्रिजटा नामक एक तपस्वी ब्राह्मण निवास करता था। उनकी बहुत सी सन्तानें थीं और वह अत्यन्त दरिद्र था। उसे अपनी गृहस्थी का पालन पोषण करने में अत्यंत कठिनाई होती थी। राम के द्वारा किये जाने वाले दान की चर्चा सुनकर उसकी पत्नी ने उनसे से कहा, हे स्वामी! आपको भी ज्ञात हुआ होगा कि अयोध्या के ज्येष्ठ राजकुमार श्री रामचन्द्रजी अपना सर्वस्व दान में वितरित कर रहे हैं। आप भी उनके पास जाकर याचना करें। हमारी निर्धनता और दरिद्रता से तथा आपकी याचना से द्रवित होकर दयालु राम हम पर भी अवश्य ही दया करेंगे और इस दरिद्रता से हमारा उद्धार कर देंगे।

तपस्वी त्रिजटा याचना में रुचि नहीं रखते थे। किन्तु पत्नी के बार-बार प्रेरित किये जाने पर विवश होकर वे श्री राम के दरबार की ओर चल पड़े। वे शीघ्रातिशीघ्र एक के बाद एक पाँच ड्यौढ़ियाँ पार करके राम के समक्ष जा पहुँचे। उनकी तपस्याजनित तेज और ओज प्रभावित राम बोले, हे तपस्वी! हे ब्राह्मण देवता!! आपका हृदय तीव्र गति से स्पंदित हो रहा है और शुभ्रभाल पर स्वेद कण झलक रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि आप बड़ी दूर से तीव्र गति के साथ चले आ रहे हैं। आपकी वेषभूषा आपके धन का अभाव का परिचाय देता है। अतः आपने अपने हाथ में जो दण्ड रखा है उसे आप अपनी पूर्ण शक्ति के साथ फेंकिये। यह दण्ड जहाँ पर जाकर गिरेगा, आपके खड़े होने से उस स्थान तक जितनी गौएँ खड़ी हो सकेंगी, मैं आपको अर्पित कर दूँगा और उन गौओं के भरण पोषण के लिये भी पर्याप्त साधन जुटा दूँगा।

इस आदेश को सुनकर त्रिजटा ने पूरी शक्ति के साथ दण्ड फेंका। दण्ड सरयू नदी के दूसरी पार जाकर गिरा। राम ने उसके बल की सराहना की तथा उसे अपनी प्रतिज्ञानुसार गौएँ दान में दीं। उनको विदा करने के पूर्व स्वर्ण, मोती, मुद्राएँ, वस्त्रादि भी दान में दिया।

इस प्रकार अपनी असंख्य धनराशि का दान कर सबको सन्तुष्ट करने के पश्चात् वे सीता और लक्ष्मण के साथ पिता के दर्शनों के लिये चले गये।

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