Hindi Poem of Pratibha Saksena “ Vatkatha”,”वटकथा” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

वटकथा

Vatkatha

 

मैं जाती थी वर्ष में एक बार,उस छाँह को छूने

उसके नीचे बिताये दिन फिर से जीने,

और पूरे साल की ऊर्जा मिल जाती थी मुझे .

मनोजगत में उसकी छाँह निरंतर लिये

आगे के तीन सौ दिन निकल जाते थे

उसी ताज़गी में रच कर,

और बाद के दिन प्रतीक्षा में उस छाँह को पाने की ।

कितने साल!

और फिर एक साल देखा वह वहाँ नहीं है .

धक् से रह गई मैं .

वह शताब्दियों पुराने पूर्वजों सा बरगद,

उसका अस्तित्व मिटा दिया गया था .

वही छाँह छू बरस पर बरस

ऊपर से निकलते चले गये

मैं रहीं वहीं की वहीं

कोई अंतर नहीं पड़ा मुझे,

लगा मैं वही हूँ, जैसी की तैसी .

उम्र क्या बढने से रुक जाती है मन की?

तुम साक्षी थे, एक मात्र,

सैकड़ों वर्षों के लंबे इतिहास के

और समीपस्थों के जीवन की

पहचान के.

तुम किसी को भूले नहीं होगे,

मुझे तो बिल्कुल नहीं .

तुम्हीं तो थे जो पत्ते हिलाते टेर लेते थे,

ज़रा इस बूढ़े बाबा की छाँह में

पसीना सुखा लो, गति धीमी कर लो,

थम जाओ ज़रा .

मेरे अंदर जो घटता था तुमसे अनजाना नहीं था .

उन क्षणों के, घटनाओं के, संवादों के

जो तुम्हारी छाँह में चलते रहे .

बहुत, बहुत दिनों के बाद कुछ देर तुम्हारी छाँह पाना,

लगता,बराबर तुम मेरे साथ हो

मेरे मनोजगत में तुम्हारी छाँह

निरंतर बनी रही लगातार

क्योंकि तुम वहाँ थे

सैकड़ों साल वहाँ रहे तुम

अब किसी के मार्ग की बाधा बन गये होगे.

उन्होंने काट दिया,

अब नहीं मिलेगी कभी वह छाँह,

अब मनोजगत में तुम नहीं रहे,

क्योंकि मैंने देख लिया तुम वहाँ नहीं हो

तुम एक छाँह थे, एक आश्रय थे,

एक आश्वस्ति थे, एक साक्षी थे!

लगता था कोई है जो तब से अब तक

मेरे साथ है मुझे जानता समझता .

ओ,महावट थे तुम मुझे छाये थे.

उस विशाल वक्षस्थल तने से सिर टिका,

क्षण का विश्राम कैसा ताप-हर था

अब नहीं मिलेगा कहीं,

कहीं भी नहीं .

 

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