Hindi Short Story, Moral Story “ Patan udaye aur pench ladaye”, ”पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएं” Hindi Motivational Story for Primary Class, Class 9, Class 10 and Class 12

पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएं

 Patan udaye aur pench ladaye

 बहुत समय पहले की बात है। महाराष्ट्र में किसी जगह एक गुरु का आश्रम था। दूर-दूर से विद्यार्थी उनके पास अध्ययन करने के लिए आते थे। इसके पीछे कारण यह था कि गुरुजी नियमित शिक्षा के साथ व्यावहारिक शिक्षा पर भी बहुत जोर देते थे। उनके पढ़ाने का तरीका भी अनोखा था।

 वे हर बात को उदाहरण देकर समझाते थे जिससे शिष्य उसका गूढ़ अर्थ समझकर उसे आत्मसात कर सकें। वे शिष्यों के साथ विभिन्न विषयों पर शास्त्रार्थ भी करते थे ताकि जीवन में यदि उन्हें किसी से शास्त्रार्थ करना पड़े तो वे कमजोर सिद्ध न हों।

 एक बार एक शिष्य गुरु के पास आया और बोला- गुरुजी! आज मैं आपसे शास्त्रार्थ करना चाहता हूं।

 गुरुजी बोले- ठीक है, लेकिन किस विषय पर?

शिष्य बोला- आप अकसर कहते हैं कि सफलता की सीढ़ियां चढ़ चुके मनुष्य को भी नैतिक मूल्य नहीं त्यागने चाहिए। उसके लिए भी श्रेष्ठ संस्कारों रूपी बंधनों में बंधा होना आवश्यक है।

 जबकि मेरा मानना है कि एक निश्चित ऊंचाई पर पहुंचने के बाद मनुष्य का इन बंधनों से मुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा मूल्यों और संस्कारों की बेड़ियां उसकी आगे की प्रगति में बाधक बनती हैं। इसी विषय पर मैं आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूं।

 शिष्य की बात सुनकर गुरुजी कुछ सोच में डूब गए और बोले- हम इस विषय पर शास्त्रार्थ अवश्य करेंगे, लेकिन पहले चलो चलकर पतंग उड़ाएं और पेंच लड़ाएं। आज मकर संक्रांति का त्योहार है। इस दिन पतंग उड़ाना शुभ माना जाता है।

 गुरुजी की बात सुनकर शिष्य खुश हो गया। दोनों आश्रम के बाहर मैदान में आकर पतंग उड़ाने लगे। उनके साथ दो अन्य शिष्य भी थे जिन्होंने चकरी पकड़ी हुई थी।

 जब पतंगें एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंच गईं तो गुरुजी शिष्य से बोले- क्या तुम बता सकते हो कि यह पतंगें आकाश में इतनी ऊंचाई तक कैसे पहुंचीं?

शिष्य बोला- जी गुरुजी! हवा के सहारे उड़कर यह ऊंचाई तक पहुंच गईं।

 इस पर गुरुजी ने पूछा- अच्छा तो फिर तुम्हारे अनुसार इसमें डोर की कोई भूमिका नहीं है?

शिष्य बोला- ऐसा मैंने कब कहा? प्रारंभिक अवस्था में डोर ने कुछ भूमिका निभाई है, लेकिन एक निश्चित ऊंचाई तक पहुंचने के बाद पतंग को डोर की आवश्यकता नहीं रहती। अब तो और आगे की ऊंचाइयां वो हवा के सहारे ही प्राप्त कर सकती है।

 अब देखिए गुरुजी! डोर तो इसकी प्रगति में बाधक ही बन रही है न? जब तक मैं इसे ढील नहीं दूंगा, यह आगे नहीं बढ़ सकती। देखिए इस तरह मेरी आज की बात सिद्ध हो गई। आप स्वीकार करते हैं इसे?

शिष्य के प्रश्न का गुरुजी ने कुछ जवाब नहीं दिया और बोले- चलो अब पेंच लड़ाएं। इसके पश्चात्‌ दोनों पेंच लड़ाने लगे। ऐसा लग रहा था जैसे आसमान में पेंच नहीं लड़ रहे बल्कि दोनों के बीच पतंगों के माध्यम से शास्त्रार्थ चल रहा हो।

 अचानक एक गोता देकर गुरु ने शिष्य की पतंग को काट दिया। कुछ देर हवा में झूलने के बाद पतंग जमीन पर आ गिरी।

 इस पर गुरु ने शिष्य से पूछा- पुत्र! क्या हुआ? तुम्हारी पतंग तो जमीन पर आ गिरी। तुम्हारे अनुसार तो उसे आसमान में और भी ऊंचाई को छूना चाहिए था। जबकि देखो मेरी पतंग अभी भी अपनी ऊंचाई पर बनी हुई है, बल्कि डोर की सहायता से यह और भी ऊंचाई तक जा सकती है। अब क्या कहते हो तुम?

शिष्य कुछ नहीं बोला। वह शांत भाव से सुन रहा था। गुरु ने आगे कहा- दरअसल तुम्हारी पतंग ने जैसे ही मूल्यों और संस्कारों रूपी डोर का साथ छोड़ा, वो ऊंचाई से सीधे जमीन पर आ गिरी।

 यही हाल हवा से भरे गुब्बारे का भी होता है। वह सोचता है कि अब मुझे किसी और चीज की जरूरत नहीं और वह हाथ से छूटने की कोशिश करता है। लेकिन जैसे ही हाथ से छूटता है, उसकी सारी हवा निकल जाती है और वह जमीन पर आ गिरता है। गुब्बारे को भी डोरी की जरूरत होती है, जिससे बंधा होने पर ही वह अपने फूले हुए आकार को बनाए रख पाता है। इस तरह जो हवा रूपी झूठे आधार के सहारे टिके रहते हैं, उनकी यही गति होती है।

 शिष्य को गुरु की सारी बात समझ में आ चुकी थी और पतंगबाजी का प्रयोजन भी। शास्त्रार्थ के इस अनोखे प्रयोग से अभिभूत वह अपने गुरु के कदमों में गिर पड़ा।

 गुरुजी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा कि यह मकर संक्रांति का सच्चा ज्ञान है। आज से तुम्हारे जीवन का सूर्य भी उत्तरायण की ओर गति करे और बढ़ते दिनों की तरह तुम जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति करो।  

 

 

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