Munshi Premchand Hindi Story, Moral Story on “Koshula”, ”कोलूशा” Hindi Short Story for Primary Class, Class 9, Class 10 and Class 12

कोलूशा

 Koshula

कब्रिस्तान के मुफलिसों के घेरे में पत्तियों से ढकी और बारिश तथा हवा में ढेर बनी समाधियों के बीच एक सूतीपोशाक पहने और सिर पर काला दुशाला डाले,दो सूखे भूर्ज वृक्षों की छाया में एक स्त्री बैठी है। उसके सिर के सफेदबालों की एक लट उसके कुम्हलाये गाल पर पड़ी है। उसके मजबूती से बंद होठों के सिरे कुछ फूले हुए-से हैं, जिससेमुहं के दोनों ओर शोक-सहूचक रेखाएं उभर आई है। आंखों की उसकी पलके सूजी हुई हैं, जैसे वह खूब रोई हो औरकई लम्बी रातें उसकी जागते बीती हों। मैं उससे कुछ ही फासले पर खड़ा देख रहा था, पर वह गुमसुम बैठी रही और जब मैं उसके नजदीक पहुंच गया तबभी उसमें कोई हलचल पैदा नहीं हुईं। महज अपनी बुझी हुई आंखों को उठाकर उसने मेरी ओर देखा और मेरे पासपहुंच जाने से जिस उत्सुकता, झिझक अथवा भावावेग की आशा की जाती थीं, उसे तनिक भी दिखाये बिना वहनीचे की ओर ताकती रही। मैंने उसे नमस्कार किया। पूछा,”क्यों बहन, यह सामधि किसकी है?” “मेरे लड़के की।” उसने बहत ही बेरुखी से जवाब दिया। “क्या वह बहुत बड़ा था?” “नहीं, बारह साल का था।” “उसकी मौत कब हुई?” “चार साल पहले।” स्त्री ने दीर्घ निश्वास छोड़ी और अपने बालों की लट को दुशाले के नीचे कर लिया। उस दिन बड़ी गर्मी थी। मुर्दो कीउस नगरी पर सूरज बड़ी बेरहमी से चमक रहा था। कब्रो पर जो थोड़ी बहुत घास उग आई थी। वह मारे गर्मी औरधूल के पीली पड़ गई थी और सलीबों के बीच यत्र-तत्र धूल से भरे पेड़ ऐसे चुपचाप खड़े थे, मानों मौत ने उन्हें भीअपने सांये में ले लिया हो। लड़के की सामधि की ओर सिर से इशारा करते हुए मैने पूछा,”उसकी मौत कैसे हुई?” “घोड़ो की टापों से कुचलने से।” उसने गिने-चुने शब्दों में उत्तर दिया और समाधि को जैसे सहलाने के लिए झुर्रियोंसे भरा अपना हाथ उस ओर बढ़ा दिया। “ऐसा कैसे हुआ?”

जानता था कि मैं अभद्रता दिखा रहा था, लेकिन उस स्त्री को इतना गुमसुम देखकर मेरा मन कुछ उत्तेजित और कुदखीज से भर उठा था। मेरे अन्दर सनक पैदा हुई कि उसकी आंखों में आंसू देखूं। उसकी उदासीनता मेंअस्वाभाविकता थी पर मुझे लगा कि वह उस ओर से बेसुध थी। मेरे सवाल पर उसने अपनी आंखें ऊपर उठाई और मेरी ओर देखा। फिर सिर से पैर तक मुझे पर निगाह डालकरउसने धीरे-से आह भरी और बड़े मंद स्वर में अपनी कहानी कहनी शुरू की: “घटना इस तरह घटी। इसके पिता गबन के मामले में डेढ़ साल के लिए जेल चले गये थे। हमारे पास जो जमा पूंजीथीं वह इस बीच खर्च हो गई। बचत की कमाई ज्यादा तो थी नहीं। जिस समय तक मेरा आदमी जेल से छूटा हमलोग घास जलाकर खाना पकाते थे। एक माली गाड़ी भर वह बेकार घास मुझे दे गया था।उसे मैंने सुखा लिया थाऔर जलाते समय उसमें थोड़ा बुरादा मिला लेती थी। उसमें बड़ा ही बुरा धुआं निकलता था और खाने के स्वाद कोखराब कर देता था। कोलूशा स्कूल चला जाता था। वह बड़ा तेज लड़का था और बहुत ही किफायतशार था। स्कूल सेघर लौटते समय रास्ते में जो भी लट्ठे- लकड़ी मिल जाते थे, ले आता था। वंसत के दिन थे। बर्फ पिघल रही थी।और कोलूशा के पास पहनने को सिर्फ किरमिच के जूते थे। जब वह उन्हें उतारता था तो उसके पैर मारे सर्दी केलाल-सुर्ख हो जाते थे। “उन्हीं दिनों उन लोगों ने लड़के के पिता को जेल से रिहा कर दिया और गाड़ी में घर लाये। जेल में उसे दिल का दौरापड़ गया था। वह बिस्तर पर पड़ा मेरी ओर ताक रहा था। उसके चेहरे पर कुटिल मुस्कराहट थी। मैंने उस परनिगाह डाली और मन-ही मन सोचा, ‘तुमने मेरी यह हालत कर दी है! और अब मैं तुम्हारा पेट कैसे भरूंगी? तुम्हें कीचड़ में पटक दूं। हां,मैं ऐसा ही करना चाहूंगी।

‘‘ लेकिन कोलूशा ने उसे देखा तो बिलख उठा। उसका चेहरा जर्द हो गया और बड़े बड़े आंसू उसके गालों पर बहनेलगे। मॉँ, इनकी ऐसी हालत क्यों है?’ उसने पूछा। मैंने कहा, यह अपना जीना जी चुके हैं’ ‘‘उस दिन के बाद से हमारी हालत बदतर होती गई। मैं रात दिन मेहनत करती, लेकिन अपना खून सुखा करके भीबीस कापेक से ज्यादा न जुट पाती और वह भी रोज नहीं, खुशकिस्मत दिनों में। यह हालत मौत से भी गई-बीती थीऔर मैं अक्सर अपनी जिन्दगी का खात्मा कर देना चाहती। “कोलूशा यह देखता और बहुत परेशान होकर इधर-से-उधर भटकता। एक बार जब मुझे लगा कि यह सब मेरीबर्दाश्त से बाहर है तो मैंने कहा, ‘आग लगे मेरी इस जिंदगी को! मैं मर क्यों नहीं जाती! तुम लोगों में से भी किसीकी जान क्यों नहीं निकल जाती?’मेरा इशारा कोलूशा और और उसके पिता की ओर थ। “उसके पिता ने सिर हिलाकर बस इतना कहा, मैं जल्दी ही चला जाऊंगा। मुझे जली कटी मत कहो। थोड़ा धीरजरक्खो।’ “लेकिन कोलूशा देर तक मेरी ओर ताकता रहा, फिर मुड़ा और घर से बाहर चला गया। “वह जैसे ही बाहर गया, मुझे अपने शब्दों पर अफसोस होने लगा, पर अब हो क्या सकता था! तीर छूट चुका था। “एक घंटा भी नहीं बीता होगा कि घोड़े पर सवार एक सिपाही आया। ‘क्या आप गौसपोजा शिशीनीना हैं?’ उसनेपूछा। मेरा दिल बैठने लगा। उसने आगे कहा, ‘तुम्हें अस्पताल में बुलाया है। सौदागर ण्नोखिन के घोड़ों ने तुम्हारेबेटे को कुचल डाला है।’ “मैं फौरन गाड़ी में अस्पताल के लिए रवाना हो गई। मुझे लग रहा था, मानो किसी ने गाड़ी की सीट पर जलतेकोयले बिछा दिये हैं” मै अपने को कोस रही थी—अरी कम्बख्त, तुने यह क्या कर डाला!’ “आखिर हम अस्पताल पहुंचे। कोलूशा बिस्तर पर पड़ा था। उसके सारे बदन पर पट्टियां बंधी थीं। वह मेरी तरफदेखकर मुस्कराया! उसके गालों पर आंसू बहने लगे! धीमी आवाज में उसने कहा, ‘मां, मुझे माफ करो। पुलिस केआदमी पैसे ले लिये हैं।’ “तुम किन पैसों की बात कर रहे हो, कोलूशा?” मैंने पूछा।

“वह बोला, अरे, वे पैसे, जो लोगों ने और एनोखिन ने मुझे दिये थे।’ “मैने पूछा, ‘उन्होंने तुम्हें पैसे क्यों दिये?’ “उसने कहा, ‘इसलिए…’ “उसने धिरे से आह भरी। उसकी आंखें तश्तरी जैसी बड़ी हो रही थीं। ‘कोलूशा!’ मैंने कहा, ‘यह क्या हुआ कि तुमने घोड़े आते हुए नहीं देखे!’ “उसने साफ आवाज में हका, ‘मां मैंने घोड़े आते देखे थे, लेकिन मेरे ऊपर से निकल जायंगे तो लोग मुझे जयादापैसे देंगे, और उन्होंने दिये भी।’ “ये उसके शब्द थे। मैं सबकुछ समझ गई, सबकुछ समझ गई कि उस फरिश्ते लाल ने ऐसा क्यों किया; लेकिन अबतो कुछ भी नहीं किया जा सकता था। “अगले दिन सबेरे ही वह मर गया। आखिरी सांस लेने तक उसकी चेतना बनी रही और वह बार-बार कहता रहाडैडी के लिए यह खरी लेना, वह खरी लेना और मां अपने लिए भी,’जैसेकि उसके सामने पैसा-ही पैसा हो। वास्तवमें सौंतालिस रूबल थे। “मैं एनोखिन के पास गई; लेकिन मुझे कुल जमा पांच रूबल दिये और वे भी गड़बड़ा कर उसने कहा, ‘लड़के नेअपने को घोड़े के बीच झोंक दिया। बहुत-से लोगों ने देखा। इसलिए तुम किस बात की भीख मांगने आई हो? मैंफिर कभी घर वापस नहीं गई। भैया, यह है सारी दास्तान!’ कब्रिस्तान में खामोशी और सन्नटा छाया था। सलीब, रोगी-जैसे पेड़, मिट्टी के ढेर और कब्र पर इतने दुखी भाव सेगुमसुम बैठी वह स्त्री—इस सबसे मैं मृत्यु और इन्सानी दुख के बारे में सोचने लगा। लेकिन आसमान साफ था और धरती पर ढलती गर्मी की वर्षा कर रहा था। मैंने अपनी जेब से कुछ सिक्के निकाले और उस स्त्री को ओर बढ़ा दिये, जिसे तकदीर ने मार डाला था, फिर भी वहजिये जा रही थी। उसने सिर हिलया और बहुत ही रुकते-रुकते कहा, “भाई, तुम अपने को क्यों हैरान करते हो! आज के लिए मेरेपास बहुत हैं। अब मुझे ज्यादा की जरूरत भी नहीं है। मैं अकेली हूं-दुनिया में बिलकुल अकेली।” उसने एक लम्बी सांस ली और फिर मुंह पर वेदना से उभरी रेखाओं के बीच अपने पतले होंठ बन्द कर लिये।

समाप्त

 

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