Ramayan Katha, Hindi Poranik Katha “Raja Shwet ki Katha”, ”राजा श्वेत की कथा ” Hindi Dharmik Katha for Class 9, Class 10 and Other Classes

राजा श्वेत की कथा – रामायण कथा 

Raja Shwet ki Katha – Ramayan Katha 

 

इन्द्र से वर प्राप्त करके रघुनन्दन राम महर्षि अगस्त्य के आश्रम में पहुँचे। वे शम्बूक वध की कथा सुनकर बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने विश्वकर्मा द्वारा दिया हुआ एक दिव्य आभूषण श्रीराम को अर्पित किया। वह आभूषण सूर्य के समान दीप्तिमान, दिव्य, विचित्र तथा अद्भुत था। उसे देखकर श्री राम ने महर्षि अगस्त्य से पूछा, “मुनिवर! विश्वकर्मा का यह अद्भुत आभूषण आपके पास कहाँ से आया? जब यह आभूषण इतना विचित्र है तो इसकी कथा भी विचित्र ही होगी। यह जानने का मेरे मन में कौतूहल हो रहा है।”

श्रीराम की जिज्ञासा और कौतूहल को शान्त करने के लिये महर्षि ने कहा, “प्राचीन काल में एक बहत विस्तृत वन था जो चारों ओर सौ योजन तक फैला हुआ था, परन्तु उस वन में कोई प्राणी-पशु-पक्षी तक भी नहीं रहता था। उसमें एक मनोहर सरोवर भी था। उस स्थान को पूर्णतया एकान्त पाकर मैं वहाँ तपस्या करने के लिये चला गया था। सरोवर के चारों ओर चक्कर लगाने पर मुझे एक पुराना विचित्र आश्रम दिखाई दिया। उसमें एक भी तपस्वी नहीं था। मैंने रात्रि वहीं विश्राम किया। जब मैं प्रातःकाल स्नानादि के लिये सरोवर की ओर जाने लगा तो मुझे सरोवर के तट पर हृष्ट-पुष्ट निर्मल शव दिखाई दिया। मैं आश्चर्य से वहा बैठकर उस शव के विषय में विचार करने लगा। थोड़ी देर पश्चात् वहाँ एक दिव्य विमान उतरा जिस पर एक सुन्दर देवता विराजमान था। उसके चारों ओर सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत अनेक अप्सराएँ बैठी थीं। उनमें से कुछ उन पर चँवर डुला रही थीं। फिर वह देवता सहसा विमान से उतरकर उस शव के पास आया और उसने मेरे देखते ही देखते उस शव को खाकर फिर सरोवर में जाकर हाथ-मुँह धोने लगा। जब वह पुनः विमान पर चढ़ने लगा तो मैंने उसे रोककर पूछा कि हे तेजस्वी पुरुष! कहाँ आपका यह देवोमय सौम्य रूप और कहाँ यह घृणित आहार? मैं इसका रहस्य जानना चाहता हूँ। मेरे विचार से आपको यह घृणित कार्य नहीं करना चाहिये था।

“मेरी बात सुकर वह दिव्य पुरुष बोला कि मेरे महायशस्वी पिता विदर्भ देश के पराक्रमी राजा थे। उनका नाम सुदेव था। उनकी दो पत्नियाँ थीं जिनसे दो पुत्र उत्पन्न हुये। एक का नाम था श्वेत और दूसरे का सुरथ। मैं श्वेत हूँ। पिता की मृत्यु के बाद मैं राजा बना और धर्मानुकूल राज्य करने लगा। एक दिन मुझे अपनी मृत्यु की तिथि का पता चल गया और मैं सुरथ को राज्य देकर इसी वन में तपस्या करने के लिये चला आया। दीर्घकाल तक तपस्या करके मैं ब्रह्मलोक को प्राप्त हुआ, परन्तु अपनी भूख-प्यास पर विजय प्राप्त न कर सका। जब मैंने ब्रह्माजी से कहा तो वे बोले कि तुम मृत्युलोक में जाकर अपने ही शरीर का नित्य भोजन किया करो। यही तुम्हारा उपचार है क्योंकि तुमने किसी को कभी कोई दान नहीं दिया, केवल अपने ही शरीर का पोषण किया है। ब्रह्मलोक भी तुम्हें तुम्हारी तपस्या के कारण ही प्राप्त हुआ है। जब कभी महर्षि अगस्त्यत उस वन में पधारेंगे तभी तुम्हें भूख-प्यास से छुटकारा मिल जायेगा। अब आप मुझे मिल गये हैं, अतएव आप मेरा उद्धार करें और मेरा उद्धार करने के प्रतिदान स्वरूप यह दिव्य आभूषण ग्रहण करें। यह आभूषण दिव्य वस्त्र, स्वर्ण, धन आदि देने वाला है। इसके साथ मैं अपनी सम्पूर्ण कामनाएँ आपको समर्पित कर रहा हूँ। मेरे आभूषण लेते ही राजर्षि श्वेत पूर्णतः तृप्त होकर स्वर्ग को प्राप्त हुये और वह शव भी लुप्त हो गया।”

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