Ancient India History Notes on “Gandhi Irvin Agreement” History notes in Hindi for class 9, Class 10, Class 12 and Graduation Classes

गाँधी-इरविन समझौता

Gandhi Irvin Agreement

गाँधी-इरविन समझौता 5 मार्च, 1931 ई. को हुआ था। महात्मा गाँधी और लॉर्ड इरविन के मध्य हुए इस समझौते को ‘दिल्ली पैक्ट’ के नाम से भी जाना जाता है। गाँधी जी ने इस समझौते को बहुत महत्त्व दिया था, जबकि पंडित जवाहर लाल नेहरू और नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने इसकी कड़ी आलोचना की। कांग्रेसी भी इस समझौते से पूरी तरह असंतुष्ट थे, क्योंकि गाँधी जी भारत के युवा क्रांतिकारियों भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी के फंदे से बचा नहीं पाए थे।

इरविन का प्रयास

लॉर्ड इरविन ने भारत सचिव के सहयोग से इंग्लैण्ड में 12 सितम्बर, 1930 ई. को ‘प्रथम गोलमेज सम्मेलन’ का आयोजन करने का फैसला किया। कांग्रेस ने अपने आप को इस सम्मेलन से अलग रखने का निर्णय किया। इरविन ने 26 जनवरी, 1931 ई. में गाँधी जी को जेल से रिहा करके देश में शांति व सौहार्द का वातावरण उत्पन्न करने की कोशिश की। तेज़बहादुर सुप्रू एवं जयकर के प्रयासों से गाँधी जी एवं इरविन के मध्य 17 फ़रवरी से दिल्ली में वार्ता प्रारम्भ हुई। 5 मार्च, 1931 ई. को अन्ततः एक समझौते पर हस्ताक्षर हुआ। इस समझौते को “गाँधी-इरविन समझौता’ कहा गया।

समझौते की शर्तें

इस समझौते की शर्तें निम्नलिखित थीं-

कांग्रेस व उसके कार्यकर्ताओं की जब्त की गई सम्पत्ति वापस की जाये।

सरकार द्वारा सभी अध्यादेशों एवं अपूर्ण अभियागों के मामले को वापस लिया जाये।

हिंसात्मक कार्यों में लिप्त अभियुक्तों के अतिरिक्त सभी राजनीतिक क़ैदियों को मुक्त किया जाये।

अफीम, शराब एवं विदेशी वस्त्र की दुकानों पर शांतिपूर्ण ढंग से धरने की अनुमति दी जाये।

समुद्र के किनारे बसने वाले लोगों को नमक बनाने व उसे एकत्रित करने की छूट दी जाये।

महात्मा गाँधी ने कांग्रेस की ओर से निम्न शर्तें स्वीकार कीं-

‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ स्थगति कर दिया गया जायेगा।

‘द्वितीय गोलमेज सम्मेलन’ में कांग्रेस के प्रतिनिधि भी भाग लेंगे।

पुलिस की ज्यादतियों के ख़िलाफ़ निष्पक्ष न्यायिक जाँच की मांग वापस ले ली जायेगी।

नमक क़ानून उन्मूलन की मांग एवं बहिष्कार की मांग को वापस ले लिया जायेगा।

गाँधी जी की आलोचना

इस समझौते को गाँधी जी ने अत्यन्त महत्व दिया, परन्तु जवाहरलाल नेहरू एवं सुभाषचन्द्र बोस ने यह कहकर मृदु आलोचना की कि गाँधी जी ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य को बिना ध्यान में रखे ही समझौता कर लिया। के.एम. मुंशी ने इस समझौते को भारत के सांविधानिक इतिहास में एक युग प्रवर्तक घटना कहा। युवा कांग्रेसी इस समझौते से इसलिए असंतुष्ट थे, क्योंकि गाँधी जी तीनों क्रान्तिकारियों भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फांसी के फंदे से नहीं बचा सके। इन तीनों को 23 मार्च, 1931 ई. को फांसी पर लटका दिया गया था।

गाँधी जी को कांग्रेस में वामपंथी युवाओं की तीखी आलोचना का शिकार होना पड़ा। बड़ी कठिनाई से इस समझौते को कांग्रेस ने स्वीकार किया। कांग्रेस के ‘कराची अधिवेशन’ में युवाओं ने गाँधी जी को ‘काले झण्डे’ दिखाये। इस अधिवेशन की अध्यक्षता सरदार वल्लभ भाई पटेल ने की। ‘गाँधी-इरविन समझौते’ के स्वीकार किये जाने के साथ-साथ इसी अधिवेशन में ‘मौलिक अधिकार और कर्तव्य’ शीर्षक प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया। इसी समय गाँधी जी ने कहा था कि “गाँधी मर सकते हैं, परन्तु गाँधीवाद नहीं।”

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