Hindi Short Story and Hindi Moral Story on “Honi Anhoni” , “होनी-अनहोनी” Complete Hindi Prernadayak Story for Class 9, Class 10 and Class 12.

होनी-अनहोनी

Honi Anhoni

 

प्राचीन समय में भद्राचलम नाम का एक राज्य था| उस राज्य का स्वामी महेन्द्रादित्य नाम का एक राजा था| राजा महेन्द्रादित्य के दो बेटे थे| बड़े बेटे का नाम सुबल कुमार और छोटे बेटे का नाम निर्मल कुमार था|

राजा महेन्द्रादित्य चापलूसी पसंद व्यक्ति था| इसी कारण उसके अनेक कर्मचारी उसकी चापलूसी करके अपने काम निकाल लेते थे| स्वयं उसका बड़ा बेटा सुबल कुमार भी उसी की हां-में-हां मिलाकर उसका प्रिय बन गया था, जबकि छोटा राजकुमार निर्मल कुमार हर बात को सोच-समझकर ही बोलता था|

एक दिन सुबल कुमार और महेन्द्रादित्य में भाग्य से संबंधित एक प्रसंग पर बहस हो रही थी, तभी छोटा राजकुमार निर्मल भी वहां आ पहुंचा| राजा ने सुबल कुमार से कहा – सुबल! एक बात बताओ, मैं इस राज्य का स्वामी हूं, समस्त प्रजा मेरी दया पर जीती है| क्या तुम भी ऐसा नहीं सोचते कि तुम स्वयं भी मेरी दया पर जीवित हो?

निश्चित ऐसा ही है महाराज! सुबल ने उत्तर दिया – प्रजा के साथ-साथ मैं भी आपकी ही कृपा से अन्न-भोजन प्राप्त करता हूं| आपकी दया के बिना भला मेरा आस्तित्व ही क्या है?

और तुम निर्मल! राजा ने अपने छोटे बेटे से उन्मुख होकर पूछा – तुम्हारे क्या विचार हैं, इस विषय में?

निर्मल कुमार ने कहा – महाराज! इस विषय में मेरा आपसे मतभेद है| मेरे विचार से प्रत्येक प्राणी अपने भाग्यानुसार ही अन्न-भोजन और धन-धान्य को प्राप्त करता है|

तुम्हारा मतलब है, तुम भी अपने भाग्य से ही सब प्राप्त करते हो, मेरी दया से कुछ नहीं? राजा ने किंचित गुस्से से पूछा|

आप मेरे पिता हैं और इस राज्य के स्वामी भी, इसलिए मैं दया और ममता तो आपसे अवश्य प्राप्त करता हूं, किंतु भोजन मुझे अपने भाग्य से ही मिलता है| राजकुमार निर्मल ने उत्तर दिया|

इसका अर्थ तो यह हुआ कि मैं कुछ भी नहीं, तुम जो कुछ खाते-पीते हो, वह तुम्हारा भाग्य ही तुम्हें देता है| क्यों यही बात है न?

मेरे कहने का यही अर्थ है पिताजी!

राजकुमार का उत्तर सुनकर राजा का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा| वह क्रोध में भरकर बोला – शैतान! मेरा दिया हुआ खाता है, मेरी दया पर आश्रित है, फिर भी अपने भाग्य का गुणगान करता है| ठहर, मैं तुझे अभी इसकी सजा देता हूं|

अगर सच बोलने की कोई सजा है तो आप जो भी सजा मुझे देना चाहते हैं, बेशक दे दीजिए, महाराज! पर यथार्थ वही है, जो मैंने कहा है| राजकुमार ने निर्भीक स्वर में उत्तर दिया|

क्रोध में बिफरते हुए राजा ने तब एक लोहे का पिंजरा मंगवाया और उसमें राजकुमार निर्मल को बंद करा दिया| फिर वह बोला – अब देखता हूं, लोहे के इस पिंजरे में तुम्हारा भाग्य कैसे तुम्हारा साथ देता है? फिर उसने सेवकों को बुलाकर कहा – ले जोया इस द्रोही को और जंगल के बीचो-बीच छोड़ आओ|

राजा के आदेश के अनुसार सेनापति पिंजरे में बंद राजकुमार को जंगल में छोड़ आए| राजकुमार ने एक-दो दिन तो भूखे-प्यासे गुजार दिए, किंतु जब भूख-प्यास असहनीय हो गई तो वह मूर्छित हो गया| संयोगवश उसी समय पड़ोसी देश के राजा जयवर्द्धन शिकार करके लौट रहे थे| उन्होंने जंगल में पिंजरे में बंद उस राजकुमार को देखा तो वह उसके समीप पहुंचे और ताला तोड़कर पिंजरे से बेहोश राजकुमार को बाहर निकाल लिया| वे बेहोश राजकुमार को घोड़े पर लादकर नदी के किनारे पहुंचे और उस पर जल के छींटे मारे| राजकुमार की तन्द्रा टूटी तो उन्होंने उसे जल पिलाया, फिर उससे पूछा – तुम कौन हो बेटे! तुम्हारी यह दशा किसने की?

तब राजकुमार ने उन्हें आद्योपांत सारी घटना कह सुनाई| सुनकर राजा ने कहा – जो कुछ हुआ उसे स्वप्न समझकर भूल जाओ पुत्र! अब तुम मेरे साथ चलो| मैं तुम्हें पुत्रवत स्नेह दूंगा| तुम्हारी ही आयु की मेरी एक पुत्री भी है|

राजा जयवर्द्धन उसे अपने राजमहल में ले आए और अपनी पत्नी तथा पुत्री से उसका परिचय करा दिया| राजकुमार निर्मल महल में आनंदपूर्वक रहने लगा|

एक दिन एक सिद्धयोगी राजा जयवर्द्धन के पास आया| राजा ने उस अतिथि योगी का खूब स्वागत-सत्कार किया और उसे अतिथिगृह में ठहरा दिया| वह योगी अनेक दिनों तक राजा का अतिथि बनकर रहता रहा| इस बीच राजकुमार निर्मल ने उसकी खूब सेवा सुश्रूबा करके योगी का दिल जीत लिया| चलते समय योगी ने उससे कहा – कुमार! तुमने मेरी बहुत सेवा की है| मैं तुम्हें तुम्हारी कोई इच्छित वस्तु देना चाहता हूं| बोलो, क्या इच्छा है तुम्हारी? मैं तुम्हारी उस इच्छा को अवश्य पूरी करूंगा|

योगीराज! राजकुमार ने विनम्र स्वर में कहा – आपका आशीर्वाद मिल गया, यही मेरे लिए बहुत है| बस मुझ पर कृपा दृष्टि बनाए रखें, यही मेरी इच्छा है|

फिर भी बेटा, मैं तुम्हारी एक इच्छा जरूरू पूरी करूंगा| योगी बोला – इच्छा बताओ|

योगी ने जब ज्यादा जोर दिया तो राजकुमार ने कहा – हे योगीराज! मुझे पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों सहित दूसरे जीवों की भाषा जानने की बहुत लालसा है| आप परम विद्वान हैं, यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं तो मुझे इस विद्या का ज्ञान करा दीजिए|

तब योगीराज ने कुमार को पशु-पक्षियों की भाषा समझने का ज्ञान करा दिया, किंतु इस विद्या को सिखाने के बाद उन्होंने यह भी कहा – कुमार! पशु-पक्षियों की बोली समझने का ज्ञान तो मैंने तुम्हें करा दिया, परंतु तुम सावधान रहना, इसका रहस्य तुम किसी दूसरे व्यक्ति को मत बताना| यदि तुमने ऐसा किया तो तुम्हारे प्राण संकट में पड़ जाएंगे|

वह क्योंकर योगीराज?

वह इसलिए कि यदि तुमने यह भेद किसी को बताया तो उसी दिन आकाश मार्ग से लाल रंग का एक सर्प आकर तुम्हें डस लेगा और तुम तुरंत अपना जीवन खो दोगे| योगी ने बताया|

राजकुमार ने योगी को वचन दिया कि इस बात का रहस्य वह किसी पर भी उजागर नहीं करेगा| संतुष्ट होकर योगी उसे आशीर्वाद देकर चला गया|

उधर राजकुमार निर्मल और राजकुमारी में प्रगाढ़ता बढ़ती देख राजा जयवर्द्धन ने उन दोनों का विवाह कर दिया| विवाह के पश्चात राजा ने एक भोज का आयोजन किया, जिसमें नगर के सभी सम्मानित नागरिक शामिल हुए|

भोज प्रारंभ हुआ| सम्मानित अतिथि भोजन करने लगे, तभी राजकुमार का ध्यान भूमि पर से भोजन के कण चुनते हुए दो ऐसे चींटों की ओर आकृष्ट हुआ, जो परस्पर झगड़ रहे थे| पशु-पक्षियों और कीट-पतंगों की बोली का ज्ञान होने के कारण राजकुमार गौर से उन दोनों चींटों का वार्तालाप सुनने लगा| एक चींटा दूसरे चींटे से कह रहा था – अरे भाई! तुम मेरा भोजन क्यों छीन रहे हो?

दूसरा चींटा, जो उससे अधिक ताकतवर था, कहने लगा – मैं तुमसे ज्यादा बलवान हूं, इसलिए यह अन्न कण मैं खाऊंगा| इसे छोड़कर तुम कोई और अन्न कण खोज लो| यदि तुमने यह अन्न कण नहीं छोड़ा तो मैं तुम्हें इसी समय मार डालूंगा|

अरे भाई! क्यों मुझ कमजोर को सता रहे हो| यहां इतना अन्न मौजूद है कि चाहो तो वर्षों तक इसे प्राप्त करते रह सकते हो| पहले चींटे ने कहा|

कहां है अन्न? दूसरे चींटे ने पूछा|

उधर देखो, राजा के कोठार में ढेरों अन्न भरा पड़ा है| मैं भी तो अपना भोजन वहीं से ला रहा हूं| तुम भी वहां जाकर अपनी पसंद का भोजन चुन लो| पहले चींटे ने उसे बताया|

दूसरा चींटा बोला – ठीक है| जाता हूं, किंतु यदि तुम्हारी बात गलत साबित हुई तो लौटकर मैं न सिर्फ तुम्हारा अन्न कण छीन लूंगा, बल्कि तुम्हें मार भी डालूंगा|

दोनों चींटों की बातें सुनकर एकाएक राजकुमार की हंसी छूट गई| उसके मुख से निकल गया – वाह री कुदरत! अजीब नियम है तेरा! यहां भी बलवान और निर्बल का झगड़ा|

राजकुमार को यूं अचानक हंसते एवं बुदबुदाते देखकर राजकुमारी और राजा जयवर्द्धन चौंक उठे| राजा कहने लगा – क्या बात है कुमार? तुम किस बात पर हंस रहे हो?

है कुछ ऐसी ही बात| राजकुमार ने कहा|

उस बात को हम भी जानना चाहते हैं, कुमार! बताओ, तुम किस बात पर हंसे थे? राजा ने आग्रह किया| फिर जब राजकुमारी भी उससे आग्रह करने लगी तो राजकुमार ने गंभीर स्वर में कहा – महाराज! यह एक रहस्य की बात है, जिसे मैं आप दोनों के सम्मुख प्रकट नहीं कर सकता| कृपया अब यह न ही पूछें तो अच्छा है|

यह सुनकर राजकुमारी नाराज हो गई| वह कहने लगी – अब तो मैं इस बात को अवश्य ही पूछकर रहूंगी| मुझे बताओ कि तुम क्यों हंसे थे? क्या रहस्य है इस बात में?

राजहठ और त्रियाहट वैसे भी विख्यात है| राजा और राजकुमारी जब दोनों यह जिद करने लगे कि राजकुमार द्वारा उस रहस्य को उजागर कर देना चाहिए तो विवश होकर राजकुमार को कहना पड़ा – ठीक है, यदि आप दोनों मुझे विवश कर रहे हैं तो मैं उस रहस्य को बता दूंगा, किंतु आज नहीं| आज से दस दिन बाद|

चलो यह भी ठीक है| दस दिन बाद ही सही, लेकिन मैं इस रहस्य को जाने बिना न रहूंगी| राजकुमारी ने कहा|

राजकुमार ने रहस्य बता देने का वचन तो दे दिया, किंतु वह चिंतित रहने लगा|

इसी परेशानी में एक दिन वह नगर से बाहर निकल गया और एक ऐसे गांव में जा पहुंचा, जहां पशु-पक्षियों का मेला लगा हुआ था| मेले में अनेक लोग पशु-पक्षियों की खरीद-फरोख्त कर रहे थे|

मेले में घूमता हुआ वह एक ऐसे व्यापारी के पास पहुंचा, जो अनेक घोड़ों को बिक्री के लिए लाया हुआ था| एकाएक राजकुमार एक मरियल से घोड़े के निकट पहुंचकर ठिठक गया| उसने घोड़े के मुख से उसी की भाषा में यह कहते सुना – हे भगवान! बहुत दिन हो गए बोझा ढाते हुए| अब तो इससे मुक्ति दिला|

राजकुमार ने घोड़े के समीप पहुंचकर उसे सहलाया, पुचकारा और उसके कान के समीप पहुंचकर घोड़े की ही भाषा में फुसफुसाया – चिंता मत करो दोस्त! मैं तुम्हें मुक्ति दिलाऊंगा|

घोड़े के व्यापारी ने राजकुमार को उस मरियल घोड़े में दिलचस्पी लेते देखा तो वह जल्दी से बोला – यह घोड़ा बहुत बढ़िया नस्ल का है श्रीमान! इसे बेहिचक खरीद लीजिए| यात्रा के कष्ट से जरा दुबला हो गया है| इसे अच्छा चारा खिलाओगे तो कुछ ही दिनों में खूब हृष्ट-पुष्ट हो जाएगा| सोच-विचार मत कीजिए, तुरंत इसे खरीद लीजिए|

फिर मोल-भाव हुआ और राजकुमार ने कीमत चुकाकर घोड़ा खरीद लिया| व्यापारी मन-ही-मन कहने लगा – ‘अच्छा मूंजी फंसा| मरियल घोड़े को इतना महंगा खरीद ले गया| कुछ दिनों बाद जब घोड़ा मर जाएगा तो अपनी किस्मत को रोएगा|’

राजकुमार घोड़े को एक नदी के किनारे ले गया| उसने घोड़े को नहलाया, धुलाया, उसे पानी पिलाया, उसे हरी-हरी घास खिलाई| जब घोड़े का पेट भर गया तो उसने बातचीत आरंभ की – मैंने तुम्हें व्यापारी की दासता से तो मुक्ति दिला दी| अब कहो तो तुम्हें स्वतंत्र कर दूं, अथवा चाहो तो मेरे साथ ही रह सकते हो|

घोड़ा कहने लगा – मैं तो आपके साथ ही रहूंगा मेरे मुक्तिदाता! मैं आपके उपकार का बदला चुकाना चाहता हूं|

कैसे चुकाओगे मेरे उपकार का बदला? राजकुमार ने पूछा|

घोड़ा बोला – आपका हर असंभव कार्य करके| मुझे कोई साधारण घोड़ा मत समझो मेरे मुक्तिदाता!

ओह! तब तो तुम कोई विलक्षण बुद्धि के स्वामी लगते हो| मुझे अपने विषय में बताओ| राजकुमार ने पूछा|

यह एक लंबी कहानी है| घोड़ा बोला – सुनिए, पूर्व काल में मैं एक गंधर्व था| मैं तथा मेरी बहन देवराज इन्द्र के दरबार में नृत्यगान किया करते थे| एक बार एक बात पर देवराज हमसे कुपित हो गए और उन्होंने हमें पशु-योनि में पड़ने का शाप दे दिया| कई पशु-योनियां भोगने के बाद अंत में मुझे घोड़े की योनि भोगनी पड़ रही है| मेरी बहन भी एक गाय बनी यहां से दूर हिमालय की एक घाटी में अपने शाप की अवधि भुगत रही है|

राजकुमार ने पूछा – देवराज इन्द्र ने तुम दोनों के शाप की कुछ अवधि तो निर्धारित की होगी?

हां, अवधि निश्चित की थी और वह अवधि अब समाप्त होने को ही है| कुछ ही दिनों में वह अवधि समाप्त होते ही हम दोनों अपना पूर्व स्वरूप पाकर अमरावती लौट जाएंगे|

देवेन्द्र द्वारा दी गई तुम्हारी अपूर्व शक्तियां क्या अब भी तुम्हारे अंदर मौजूद हैं या काल के प्रभाव से वे भी समाप्त हो गईं? राजकुमार ने पूछा|

घोड़ा कहने लगा – हां, वे शक्तियां अब भी मुझमें विद्यमान हैं| इस योनि में भी अपनी उन शक्तियों का उपयोग करके मैं धरती-आकाश अथवा पाताल लोक में बेरोक-टोक आ-जा सकता हूं, पर मैंने आज तक अपनी उन शक्तियों का उपयोग नहीं किया| कारण यह था कि कोई भी मानव मेरे उन गुणों को जानकर उनका दुरुपयोग कर सकता था|

अगर मैं तुमसे कोई विशेष काम लेना चाहूं तो क्या मेरे लिए तुम उन शक्तियों का उपयोग कर सकोगे? राजकुमार ने पूछा|

आप तो मेरे मुक्तिदाता हैं| घोड़ा बोला – आपका तो कोई भी संभव या असंभव काम करते मुझे बहुत प्रसन्नता होगी| ऐसा करके मैं स्वयं को आपके उपकार से मुक्त हुआ समझूंगा|

तब ठीक है| मैं आजकल एक अजीब मुसीबत में फंस गया हूं| मैंने अपनी पत्नी एवं अपने ससुर को एक रहस्य को बता देने का वचन दे दिया है| अब यदि उस वचन से मुकरता हूं तो अहसान फरामोश कहलाऊंगा और यदि वचन पूरा करता हूं तो मेरी मृत्यु होनी निश्चित है|

मुझे अपना कष्ट बताइए| मैं अवश्य उसका कोई समाधान कर दूंगा| घोड़े ने कहा|

तब राजकुमार ने उसे राजा और अपनी पत्नी को दिए गए वचन के विषय में बता दिया| साथ ही यह भी बता दिया कि वचन पूरा करने पर आकाशचारी लाल रंग के सर्प द्वारा मेरी मृत्यु निश्चित है|

यह सुनकर घोड़ा बोला – उस लाल रंग के सर्प को मारना कोई कठिन काम नहीं है, राजकुमार! आप मेरी पीठ पर सवार होकर आकाश में उड़ चलना, फिर जैसे ही वह लाल सर्प आकाशमार्ग से आता दिखाई दे, भूमि पर उसके पहुंचने से पूर्व ही उसका वध कर डालना| राजकुमार! ऐसे सर्प सिर्फ भूमि पर पहुंचकर ही विनाशकारी सिद्ध होते हैं| आकाश में तो उनकी शक्ति आधी भी नहीं रहती, इसलिए भूमि पर पहुंचने से पूर्व तुम्हें उसको समाप्त करने में कोई परेशानी नहीं होगी|

यह सुनकर राजकुमार की बांछें खिल गईं| उसने ऐसा ही करने का निश्चय कर लिया|

घोड़े को लेकर राजकुमार महल में पहुंचा और अपने कक्ष के समीप बनी एक अश्वशाला में उसे बांध दिया| उसने सेवक को कह दिया कि घोड़े की विशेष देखभाल की जाए|

फिर एक दिन उसने राजा और अपनी पत्नी को बुलाकर उनसे कहा – आज मैं आपको बता रहा हूं कि उस दिन मैं क्यों हंसा था! बात यह है कि मैं पशु-पक्षियों की बोली समझता हूं| उस दिन मेरे हंसने का कारण दो चींटों का वार्तालाप था|

तत्पश्चात राजकुमार ने उन चींटों में हुआ वार्तालाप दुहरा दिया| वार्तालाप जैसे ही समाप्त हुआ, अचानक आकाश में एक आंधी उठने लगी| देखते-ही-देखते एक भयंकर अंधड़ ने सारे नगर को अपनी चपेट में ले लिया| बिजलियां कड़कने लगीं और आकाश घने बादलों से ढक गया| यह देख राजकुमार समझ गया कि वचन भंग करने का परिणाम भोगने का समय आ पहुंचा| तब उसने दीवार पर टंगी अपनी तलवार उठाई और अश्वशाला की ओर लपका| उसने घोड़ा खोला और उस पर सवार होते हुए कहा – वक्त आ गया मित्र! तुरंत आकाश में उड़ चलो| भूमि पर आने से पहले ही मुझे उस लाल सर्प को समाप्त आकर डालना है|

घोड़ा तुरंत आकाश की ओर उड़ चला और क्रोध में फुंफकारते हुए लाल सर्प के नजदीक जा पहुंचा| सर्प राजकुमार को देखकर उसकी ओर झपटा, किंतु घोड़ा कन्नी काट गया, तभी मौका देखकर राजकुमार ने लाल सर्प पर तलवार का प्रहार कर दिया| निशाना सही बैठा| तलवार के भरपूर प्रहार ने सर्प को दो टुकड़ों में काट डाला| सर्प मरकर नीचे जा गिरा| नीचे कौतूहलवश इस युद्ध को देख रहे नगरवासी यह देखकर प्रसन्नता से झूम उठे|

सर्प को मारकर भी राजकुमार जब नीचे न उतरा तो राजकुमारी चिंतित हो उठी| उसने अपने पिता जयवर्द्धन ने चिंतातुर स्वर में कहा – पिताजी! सर्प तो मारा जा चुका है, फिर राजकुमार नीचे क्यों नहीं उतर रहे? कहीं ऊपर उनके साथ कोई अन्य अप्रिय घटना तो नहीं घट गई?

महाराज जयवर्द्धन ने तब उसे धीरज बंधाया और बोले – राजकुमार वीर है, बेटी! वह किसी भी मुसीबत से पार पाने की क्षमता रखता है, अत: तुम्हें कोई आशंका नहीं होनी चाहिए| वह अपना काम समाप्त कर निश्चय ही लौट आएगा|

उधर सर्प को समाप्त कर घोड़ा वायु वेग से उड़ता हुआ उसे हिमालय की उस घाटी में ले गया, जहां उसकी बहन शापयुक्त होकर गाय की योनि में पड़ी शाप का समय गुजार रही थी| वहां पहुंचकर उसने अपनी बहन से राजकुमार का परिचय कराया| वह स्थान बहुत ही रमणीक था, अत: राजकुमार वहां की सुंदरता पर मुग्ध हो गया| उसने मुक्त कंठ से उस स्थान की प्रशंसा की| यह सुनकर उस शापयुक्त गंधर्वी ने कहा – राजकुमार! स्थान तो यह निश्चय ही बहुत सुंदर है, परंतु जितना सुंदर है, उतना खतरनाक भी है|

वह कैसे? राजकुमार ने कौतुहल से पूछा|

तुम सामने एक पहाड़ी देख रहे हो न! उस पहाड़ी के पीछे एक बहुत ही मनोरम सरोवर है, जहां यक्ष कन्याएं स्नान करने आया करती हैं| यदि वे वहां किसी मनुष्य को देख लेती हैं तो बेहद नाराज हो जाती हैं और उन्हें अपने जादू से तुरंत पत्थर बना देती हैं, इसलिए तुम भूलकर भी उस ओर मत जाना| गाय बनी गंधर्वी ने बताया|

गंधर्वी की बात पर विचार करके राजकुमार ने वहां जाने का विचार त्याग दिया और चिंतामुक्त होकर सो गया|

अगली सुबह जब वह सोकर उठा तो उसने अपने सम्मुख एक अप्सरा जैसी सुंदर स्त्री और एक देवता जैसे दिव्य स्वरूप वाले व्यक्ति को खड़ा पाया| यह देखकर उसने चौंककर उनसे पूछा – आप दोनों कौन हैं?

तब वह दिव्य पुरुष बोला – चौंकिए मत राजकुमार! मैं आपका वही घोड़ा हूं और मेरे पास खड़ी स्त्री मेरी बहन है, जो अपने शाप से मुक्त होकर अब अपने वास्तविक स्वरूप में आ गई है| आज हम दोनों के शाप की अवधि अभी कुछ ही देर पहले समाप्त हो गई है और हम अपना वास्तविक स्वरूप पा गए हैं|

राजकुमार बोला – मुझे यह जानकर अतीव प्रसन्नता हुई है कि अंतत: तुम दोनों को शापग्रस्त योनि से मुक्ति मिल गई, परंतु अब मैं इस विचार से चिंतित हो गया हूं कि अपने घर कैसे पहुंच पाऊंगा?

चिंतित क्यों होते हो राजकुमार! गंधर्व बोला – हम तुम्हें अपनी अलौकिक शक्ति से तुम्हारे नगर में पहुंचा देंगे|

तत्पश्चात उस गंधर्व ने राजकुमार को अपने कंधों पर बिठाया और उसे उसके नगर की ओर लेकर उड़ चला| गंधर्वी भी उनके पीछे-पीछे उड़ चली|

बात-की-बात में तीनों राजकुमार के नगर में आ पहुंचे| गंधर्व राजकुमार को वहां पहुंचाकर और उसका आभार व्यक्त करके अपनी बहन गंधर्वी सहित अमरावती के लिए उड़ गया| राजकुमार जब अपने महल में पहुंचा तो राजा जयवर्द्धन और राजकुमारी दोनों उसे सुरक्षित देखकर प्रसन्न हो गए, राजा ने अपने जमाता के सुरक्षित लौटने पर नगर-भर में दीपावली मनाने का आदेश जारी कर दिया|

अगले ही दिन राजा ने राजकुमार निर्मल को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर उसे राज्य का स्वामी बना दिया और स्वयं उसे राजपाट सौंपकर तीर्थाटन के लिए चला गया| राजकुमार सुखपूर्वक अपनी पत्नी सहित राजमहल में निवास करने लगा|

कई महीने इसी प्रकार बीत गए| एक दिन राजकुमार के मन में यह विचार आया कि एक बार अपने पिता के राज्य में जाकर अपने परिवार के विषय में मालूम किया जाना चाहिए| इससे मेरे पिता को भी मेरी बात का विश्वास हो जाएगा कि मेरा कथन कितना सत्य साबित हुआ है| ऐसा विचार कर वह अगले दिन अपने पिता के नगर की ओर चल दिया|

जब राजकुमार निर्मल अपने नगर में पहुंचा तो वहां उसे सब कुछ बदला-बदला सा नजर आया| वहां का हर व्यक्ति उदास और सहमा-सा दिख रहा था| राजमार्ग सूने पड़े थे| सही हालात मालूम करने के लिए उसने एक राहगीर से पूछा – क्यों भाई! भद्राचलम में कोई विपत्ति आ गई है क्या, जो यह नगर इतना वीरान और बेरौनक लग रहा है?

तुम्हारा कथन किसी हद तक बिल्कुल ठीक है भाई! राहगीर बोला – इसे विपत्ति नहीं, महाविपत्ति ही समझो| जब से हमारे पूर्ववर्ती महाराज महेन्द्रादित्य ने अपने छोटे बेटे को मरवा डालने का आदेश दिया था, तभी से इस राज्य पर विपत्ति के बादल मंडराने आरंभ हो गए थे|

पूर्ववर्ती महाराज? राजकुमार का दिल धड़क उठा – यह तुम क्या कह रहे हो? क्या महाराज महेन्द्रादित्य अब इस राज्य के स्वामी नहीं हैं?

नहीं| राहगीर ने बताया – कुषाण राजा भद्रबाहु ने इस नगर पर आक्रमण कर महराज को बंदी बना लिया था| तब से वही यहां का राजा है|

और महाराज के बड़े पुत्र सुबल, उनकी महारानी का क्या हुआ?

महाराज को बंदीगृह में डालकर भद्रबाहु ने उन सभी का कत्ल करवा दिया|

ओह! यह तो बहुत बुरा हुआ| क्या महाराज अब भी कारागृह में बंद हैं?

राहगीर ने बताया – कुछ समय पहले ऐसा सुना गया था कि वे किसी तरह से बंदीगृह से भाग निकलने में कामयाब हो गए हैं| अब वे कहां हैं, कोई नहीं जनता|

अपना परिचय छिपाकर राजकुमार दुखी मन से वापस लौट पड़ा, परंतु उसने उसी घड़ी संकल्प किया – ‘मैं अपने पिता की खोज करूंगा और दुष्ट भद्रबाहु के शिकंजे से अपने पिता का राज्य लौटाकर ही दम लूंगा|’

मार्ग में चलते हुए जब वह जंगल के एक छोर पर पहुंचा तो मैले-कुचैले चिथड़ों में लिपटा एक बूढ़ा व्यक्ति उसे एक वृक्ष के नीचे बैठा दिखाई दिया| राजकुमार को जाते देखकर उसने आवाज लगाई – भूखे को भोजन देते जाना बेटा! ईश्वर तुम्हारा भला करेगा|

राजकुमार इस आवाज को सुनकर चौंक पड़ा और अपना घोड़ा तत्काल उस बूढ़े की दिशा में बढ़ा दिया| जब वह नजदीक पहुंचा तो उसने उस बूढ़े को तत्काल पहचान लिया| तब वह तुरंत उस बूढ़े के चरणों में गिर गया और सुबकते हुए बोला – पिताजी! पहचानिए पिताजी! मैं आपका पुत्र निर्मल कुमार हूं|

वृद्ध महेन्द्रादित्य ने भी अपने बेटे को पहचान लिया| उन्होंने उसे अपने हृदय से लगा लिया| उनके नेत्रों से आंसुओं की धारा बह निकली| रुंधे गले से उन्होंने कहा – निर्मल! मेरे बेटे! तुम जिंदा हो? कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा हूं?

यह सपना नहीं, वास्तविकता है, पिताजी! मैं जीवित हूं, पर नगर की दुर्दशा देखकर मुझे भारी आघात पहुंचा है|

पिता-पुत्र में देर तक बातें होती रहीं| राजकुमार ने अपने राजा होने की बात पिता को बताई और पिता ने अपनी और अपने परिवार की दुर्दशा का वर्णन सुनाया| सुनकर राजकुमार निर्मल ने कहा – जो हो गया, उसे भूल जाइए पिताजी! अब आप मेरे साथ चलकर मेरे पास रहिए| मैंने प्रतिज्ञा की है कि अपने नगर को अवश्य मुक्त कराऊंगा और राजसिंहासन पर आपको एक बार पुन: प्रतिष्ठित करूंगा|

वृद्ध पिता बोले – अब मुझे राज्य प्राप्ति की कोई कामना नहीं रही बेटे| परिवार में एकमात्र बचे तुम ही मेरे सब कुछ हो| तुम कुशलपूर्वक रहो, यही मेरी इच्छा है|

फिर भी पिताजी! राजकुमार ने कहा – अपने संकल्प को पूरा किए बिना मैं हरगिज चैन से नहीं बैठ सकता| मेरी माता तथा मेरे भैया के हत्यारे भद्रबाहु को उसके किए का फल अवश्य भोगना पड़ेगा|

पुत्र निर्मल! वृद्ध महेन्द्रादित्य ने कहा – तुम मेरे धीर, वीर पुत्र हो| मुझे विश्वास है तुम अपने संकल्प को अवश्य पूरा करोगे, लेकिन मेरे मन में पश्चाताप की जो अग्नि सुलग रही है, उसे अब तीर्थाटन पर जाकर ही शांत किया जा सकता है| मैंने तुम्हारे प्रति बहुत अन्याय किया है पुत्र!

भूल जाइए उन बीती बातों को| राजकुमार बोला – आप मेरे पिता हैं| आपका हर आदेश मुझे उस समय भी स्वीकार था और अब भी है|

भूल मेरी ही थी पुत्र!’ राजा महेन्द्रादित्य पश्चाताप भरे स्वर में बोले – सत्ता के मद में मैं भूल ही गया था कि होनहार प्रबल होती है| मैं अपने चाटुकार मंत्रियों और पार्षदों के बहकावे में आकर तुम्हें मृत्युदंड जैसा घोर दंड देने की गलती कर बैठा था| मुझे क्षमा कर दो बेटे!

यह सुनकर निर्मल कुमार ने कहा – आप कैसी बातें कर रहें हैं, पिताजी! मुझसे बार-बार क्षमा याचना करके आप मुझ पर और पाप मत चढाइए| सारी पिछली बातें बिसारकर अब आप मेरे साथ रहिए और मुझे तथा मेरी पत्नी को अपनी सेवा का अवसर दीजिए|

इस प्रकार समझा-बुझाकर निर्मल कुमार अपने पिता को अपने महल में ले आया और उनकी खूब सेवा-सुश्रुषा करने लगा| कुछ दिन बाद उसने एक विशाल सेना एकत्र करके भद्रबाहु पर आक्रमण कर दिया| इस युद्ध में उसे राज्य के नागरिकों का भी भरपूर सहयोग मिला| परिणाम यह निकला कि युद्ध में भद्रबाहु की हार हो गई| निर्मल कुमार ने भद्रबाहु का सिर काट डाला और युद्ध में विजय प्राप्त करके अपने पिता को भद्राचल के सिहांसन पर पुन: प्रतिष्ठित कर दिया|

बाद में जब दोनों राज्यों का एकीकरण हो गया तो एक दिन निर्मल कुमार ने एकांत में अपने पिता से पूछा – क्यों पिताजी! भाग्य के विषय में मेरा कथन ठीक था या आपका?

तुम्हारा ही कथन ठीक था पुत्र! राजा ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा – मेरे मन में अहंकार था कि मैं ही सब कुछ हूं| आज मैं समझ गया हूं कि मेरा अहंकार, मेरा दंभ निरर्थक था| इंसान जो भी कर्म करता है, उसका फल भाग्य के अधीन होता है| शायद इसी उक्ति को चरितार्थ करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहा था – ‘कर्मण्येव धिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन:|’ हे अर्जुन! तुम कर्म करो, उसका फल देना तो मेरे अर्थात भाग्य के अधीन है|

 

Leave a Reply

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.