Hindi Poem of Kabir ke dohe “Ram-Naam ke pantetare deve ko kuch nahi , “राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं” Complete Poem for Class 10 and Class 12

राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं -कबीर

Ram-Naam ke pantetare deve ko kuch nahi -Kabir ke dohe

 

राम-नाम कै पटंतरै, देबे कौं कछु नाहिं ।
क्या ले गुर संतोषिए, हौंस रही मन माहिं ॥1॥

भावार्थ – सद्गुरु ने मुझे राम का नाम पकड़ा दिया है । मेरे पास ऐसा क्या है उस सममोल का, जो गुरु को दूँ ?क्या लेकर सन्तोष करूँ उनका ? मन की अभिलाषा मन में
ही रह गयी कि, क्या दक्षिणा चढ़ाऊँ ? वैसी वस्तु कहाँ से लाऊँ ?

सतगुरु लई कमांण करि, बाहण लागा तीर ।
एक जु बाह्या प्रीति सूं, भीतरि रह्या शरीर ॥2॥

भावार्थ – सदगुरु ने कमान हाथ में ले ली, और शब्द के तीर वे लगे चलाने । एक तीर तो बड़ी प्रीति से ऐसा चला दिया लक्ष्य बनाकर कि, मेरे भीतर ही वह बिंध गया, बाहर
निकलने का नहीं अब ।

सतगुरु की महिमा अनंत, अनंत किया उपगार ।
लोचन अनंत उघाड़िया, अनंत-दिखावणहार ॥3॥

भावार्थ – अन्त नहीं सद्गुरु की महिमा का, और अन्त नहीं उनके किये उपकारों का , मेरे अनन्त लोचन खोल दिये, जिनसे निरन्तर मैं अनन्त को देख रहा हूँ ।

बलिहारी गुर आपणैं, द्यौंहाड़ी कै बार ।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार ॥4॥

भावार्थ – हर दिन कितनी बार न्यौछावर करूँ अपने आपको सद्गुरू पर, जिन्होंने एक पल में ही मुझे मनुष्य से परमदेवता बना दिया, और तदाकार हो गया मैं ।

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े,काके लागूं पायं ।
बलिहारी गुरु आपणे, जिन गोविन्द दिया दिखाय ॥5॥

भावार्थ – गुरु और गोविन्द दोनों ही सामने खड़े हैं ,दुविधा में पड़ गया हूँ कि किसके पैर पकडूं !सद्गुरु पर न्यौछावर होता हूं कि, जिसने गोविन्द को सामने खड़ाकर दिया,
गोविनद से मिला दिया ।

ना गुर मिल्या न सिष भया, लालच खेल्या डाव ।
दुन्यूं बूड़े धार मैं, चढ़ि पाथर की नाव ॥6॥

भावार्थ – लालच का दाँव दोनों पर चल गया , न तो सच्चा गुरु मिला और न शिष्य ही जिज्ञासु बन पाया । पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनों ही मझधार में डूब गये ।

पीछैं लागा जाइ था, लोक बेद के साथि ।
आगैं थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि ॥7॥

भावार्थ – मैं भी औरों की ही तरह भटक रहा था, लोक-वेद की गलियों में । मार्ग में गुरु मिल गये सामने आते हुए और ज्ञान का दीपक पकड़ा दिया मेरे हाथ में । इस उजेले
में भटकना अब कैसा ?

`कबीर’ सतगुर ना मिल्या, रही अधूरी सीष ।
स्वांग जती का पहरि करि, घरि घरि माँगे भीष ॥8॥

भावार्थ – कबीर कहते हैं -उनकी सीख अधूरी ही रह गयी कि जिन्हें सद्गुरु नहीं मिला । सन्यासी का स्वांग रचकर, भेष बनाकर घर-घर भीख ही माँगते फिरते हैं वे ।

सतगुरु हम सूं रीझि करि, एक कह्या परसंग ।
बरस्या बादल प्रेम का, भींजि गया सब अंग ॥9॥

भावार्थ – एक दिन सद्गुरु हम पर ऐसे रीझे कि एक प्रसंग कह डाला,रस से भरा हुआ । और, प्रेम का बादल बरस उठा, अंग-अंग भीग गया उस वर्षा में ।

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान ।
सीस दिये जो गुर मिलै, तो भी सस्ता जान ॥10॥

भावार्थ – यह शरीर तो बिष की लता है, बिषफल ही फलेंगे इसमें । और, गुरु तो अमृत की खान है । सिर चढ़ा देने पर भी सद्गुरु से भेंट हो जाय, तो भी यह सौदा सस्ता
ही है ।

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