Hindi Poem of Pratibha Saksena “  Shambhi ki barat”,”शम्भू की बारात” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

शम्भू की बारात

 Shambhi ki barat

 

लो, चली ये शंभु की बारात!

आज गौरी वरेंगी जगदीश्वर को,

चल दिये है ब्याहने अद्भुत बराती साथ .

चढ़े बसहा चले शंकर, लिए डमरू हाथ,

बाँध गजपट, भाँग की झोली समेटे काँख,

साथ चल दी, विकट, अद्भुत, महाकार जमात.

बढ़ चली, लो शंभु की बारात!

सब विरूपित, विकृत सब आधे अधूरे,

चल दिए पाकर कृपा का हाथ,

अंध, कोढ़ी, विकल-अंग, विवस्त्र, विचलित वेश,

कुछ निरे कंकाल कुछ अपरूप,

विकृत और विचित्र- देही विविध रूप अशेष

अंग-हत कंकाल ज्यों हों भूत -प्रेत-पिशाच!

नाचते आनंद-स्वर भर गान परम विचित्र,

बन बराती चल दिए सब संग!

चले सभी, कि आज हो आतिथ्य पशुपति साथ

आज तो वंदन मिलेगा और चंदन भाल.

मान-पान समेत स्वागत भोग, सुरभित माल,

रूप-रँग-गुण हीन, वस्त्र-विहीन, सज्जा-हीन,

तृप्ति पा लेंगे सभी पा अन्न और अनन्य!

वंचितों को शरण में ले, हँसे शंभु प्रसन्न.

पूछता कोई न जिनको, सब जगत भयभीत,

त्यक्त हैं अभिशप्त ज्यों, कैसी जगत की रीत!

चिर-उपेक्षित शंभु से जुड़ पा गए सम्मान,

चल दिए, स्वीकार करने शंभु कन्यादान!

देख पशुपति की विचित्र बरात –

देव-किन्नर, यक्ष दनुसुत, नाग सई अवाक्,

भ्रमित, विस्मित, किस तरह हों बन बराती साथ .

सोच में हैं यह कि भोले को चढ़ी है भंग,

हरि, विरंच,मनुज सभी तो रह गए हैं दंग!

जानते शिव-शंभु सब का सोच.

‘कौन है संपूर्ण, पशु-तन तो सभी के साथ,

कौन है परिपूर्ण, सबके ही विकारी अंग?’

मौन विधि, नत-शीश हैं देवेन्द्र.

और इनकी व्याधियाँ- बाधा हरेगा कौन?

चेतना का यह विकृत परिवेश,

दोष किसका – यह बताए कौन? ‘

‘तुम सभी पावन परम, ले दिव्य, सुन्दर रूप,

देह धर आए यहाँ आनन्द के ही काज,

शक्तियों-सह चल, करो सब साज स्वागत हेतु.

रहो हिमगिरि के भवन, धर कर घराती रूप,

मैं, कि पशुपति करूँगा स्वीकार ये पशु-रूप.’

सृष्टि का विष कंठ, सभी विकार धर कर शीष,

ये उपेक्षित त्यक्त, मेरे स्वजन बन हों संग,

शिव बिना अपना सकेगा कौन?

स्वयं भिक्षुक बना याचक मंडली ले साथ

आ रहा हूँ माँगने, लोकेश्वरी का हाथ!

रहे वंचित,निरादृत, अब तृप्त हों वे जीव,

स्वस्थ सहज प्रसन्न मन की मिले हमें असीस!’

डमरु की अनुगूँज, जाते झूम,

विसंगतियों में ढले, वे दीन-दरिद अनाथ,

नृत्य करते, तान भरते विकट धर विन्यास!

हुए कुंठाहीन, भर आनन्द, लीन, विभोर-

आज सिर पर परम-शिव का हाथ.

चल पड़ी लो शंभु की बारात!

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