Hindi Poem of Pratibha Saksena “  Tumne keval bahar dekha”,” तुमने केवल बाहर देखा” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

तुमने केवल बाहर देखा

 Tumne keval bahar dekha

 

तुमने केवल बाहर देखा, काश हृदय में झाँका होता!

तुमने देखा मस्त हिलोंरों भरा सिन्धु का उमडा यौवन,

कुमने देखा हिम किरीट से ढँकीहुई पर्वत की चोटी,

पर बहार से भरे दिनों में बौरी आकुल अमराई से,

तेरे अंतर से कोकिल की कूक कभी टकराई होती,

तब अव्यक्त उस मधुता का तीखापन तुम अनुभव कर पाते,

चाहे गहराई से तुमने उसा मोल न आँका होता!

जलते देखे दीप हजारों, जिनसे कुहू बले उजियाली,

देखी होगी ऊँचे-ऊँचे महलों में मनती दीवाली,

झोपडियों की अँधियारी में शायद देक नहीं पाते हो

गहन अमाँ का कफन ओढ कर पडी जहाँ जीवन की लाली!

तुमने गिरती मानवता का देखा होता काश तमाशा,

जिसकी साँसों का चलना भी किसी नयन का काँटा होता!

इतिहासों के पृष्ठ पलट कर, देखा सम्राटों का वैभव,

आँख मूँद कर हार जीत की बोली सुन ली होगी तुमने,

पर देखो जन-जीवन को क्या आँख खोल कर देख सकोगे,

कैसे अब इन्सान चल रहा अपने वर्तमान के पथ में!

अपनी न्याय तुला पर बीती सदियों को तो तोल चुके तुम,

काश एक ही बार स्वयं के युग को भी कुछ जाँचा होता!

दुनिया की सडकों पर चलते तुमको शायद ये न पता हो,

नैनों की गंगा -यमुना के तट पर कितने ताज अधूरे,

काश, जानते, यहाँ मनुज का खून-पसीना भी बिक जाता,

टुकडों की छीना-झपटी में, जीने को भी दाम न पूरे!

काश जानते आज यहाँ, मानवता बिकती, लुटती, पिटती

चाहे उसकी लूटमार तुमको भी एक तमाशा होता! ,

तुमने देखा मस्त हिलोंरों भरा सिन्धु का उमडा यौवन,

कुमने देखा हिम किरीट से ढँकीहुई पर्वत की चोटी,

पर बहार से भरे दिनों में बौरी आकुल अमराई से,

तेरे अंतर से कोकिल की कूक कभी टकराई होती,

तब अव्यक्त उस मधुता का तीखापन तुम अनुभव कर पाते,

चाहे गहराई से तुमने उसा मोल न आँका होता!

जलते देखे दीप हजारों, जिनसे कुहू बने उजियाली,

देखी होगी ऊँचे-ऊँचे महलों में मनती दीवाली,

झोपडियों की अँधियारी में शायद देक नहीं पाते हो

गहन अमाँ का कफन ओढ कर पडी जहाँ जीवन की लाली!

तुमने गिरती मानवता का देखा होता काश तमाशा,

जिसकी साँसों का चलना भी किसी नयन का काँटा होता!

इतिहासों के पृष्ठ पलट कर, देखा सम्राटों का वैभव,

आँख मूँद कर हार जीत की बोली सुन ली होगी तुमने,

पर देखो जन-जीवन को क्या आँख खोल कर देख सकोगे,

कैसे अब इन्सान चल रहा अपने वर्तमान के पथ में!

अपनी न्याय तुला पर बीती सदियों को तो तोल चुके तुम,

काश एक ही बार स्वयं के युग को भी कुछ जाँचा होता!

दुनिया की सडकों पर चलते तुमको शायद ये न पता हो,

नैनों की गंगा -यमुना के तट पर कितने ताज अधूरे,

काश, जानते, यहाँ मनुज का खून-पसीना भी बिक जाता,

टुकडों की छीना-झपटी में, जीने को भी दाम न पूरे!

काश जानते आज यहाँ, मानवता बिकती, लुटती, पिटती

चाहे उसकी लूटमार तुमको भी एक तमाशा होता!

तुमने केवल बाहर देखा, काश हृदय में झाँका होता!

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