Hindi Poem of Kabir ke dohe “Gagan damama bajayi paiya insane ghav , “गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव” Complete Poem for Class 10 and Class 12

गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव -कबीर

Gagan damama bajayi paiya insane ghav -Kabir ke dohe

 

गगन दमामा बाजिया, पड्या निसानैं घाव ।
खेत बुहार्या सूरिमै, मुझ मरणे का चाव ॥1॥

भावार्थ – गगन में युद्ध के नगाड़े बज उठे, और निशान पर चोट पड़ने लगी । शूरवीर ने रणक्षेत्र को झाड़-बुहारकर तैयार कर दिया, तब कहता है कि `अब मुझे कट-मरने का
उत्साह चढ़ रहा है ।’

`कबीर’ सोई सूरिमा, मन सूं मांडै झूझ ।
पंच पयादा पाड़ि ले, दूरि करै सब दूज ॥2॥

भावार्थ – कबीर कहते हैं – सच्चा सूरमा वह है, जो अपने वैरी मन से युद्ध ठान लेता है, पाँचों पयादों को जो मार भगाता है, और द्वैत को दूर कर देता है । [ पाँच पयादे,
अर्थात काम, क्रोध, लोभ, मोह और मत्सर। द्वैत अर्थात् जीव और ब्रह्म के बीच भेद-भावना ।]

`कबीर’ संसा कोउ नहीं, हरि सूं लाग्गा हेत ।
काम क्रोध सूं झूझणा, चौड़ै मांड्या खेत ॥3॥

भावार्थ – कबीर कहते हैं — मेरे मन में कुछ भी संशय नहीं रहा, और हरि से लगन जुड़ गई । इसीलिए चौड़े में आकर काम और क्रोध से जूझ रहा हूँ रण-क्षेत्र में ।

सूरा तबही परषिये, लड़ै धणी के हेत ।
पुरिजा-पुरिजा ह्वै पड़ै, तऊ न छांड़ै खेत ॥4॥

भावार्थ – शूरवीर की तभी सच्ची परख होती है, जब वह अपने स्वामी के लिए जूझता है । पुर्जा-पुर्जा कट जाने पर भी वह युद्ध के क्षेत्र को नहीं छोड़ता ।

अब तौ झूझ्या हीं बणै, मुड़ि चाल्यां घर दूर ।
सिर साहिब कौं सौंपतां, सोच न कीजै सूर ॥5॥

भावार्थ – अब तो झूझते बनेगा, पीछे पैर क्या रखना ? अगर यहाँ से मुड़ोगे तो घर तो बहुत दूर रह गया है । साईं को सिर सौंपते हुए सूरमा कभी सोचता नहीं, कभी
हिचकता नहीं ।

जिस मरनैं थैं जग डरै, सो मेरे आनन्द ।
कब मरिहूं, कब देखिहूं पूरन परमानंद ॥6॥

भावार्थ – जिस मरण से दुनिया डरती है, उससे मुझे तो आनन्द होता है ,कब मरूँगा और कब देखूँगा मैं अपने पूर्ण सच्चिदानन्द को !

कायर बहुत पमांवहीं, बहकि न बोलै सूर ।
काम पड्यां हीं जाणिये, किस मुख परि है नूर ॥7॥

भावार्थ – बड़ी-बड़ी डींगे कायर ही हाँका करते हैं, शूरवीर कभी बहकते नहीं । यह तो काम आने पर ही जाना जा सकता है कि शूरवीरता का नूर किस चेहरे पर प्रकट होता है

`कबीर’ यह घर पेम का, खाला का घर नाहिं ।
सीस उतारे हाथि धरि, सो पैसे घर माहिं ॥8॥

भावार्थ – कबीर कहते हैं – यह प्रेम का घर है, किसी खाला का नहीं , वही इसके अन्दर पैर रख सकता है, जो अपना सिर उतारकर हाथ पर रखले । [ सीस अर्थात अहंकार
। पाठान्तर है `भुइं धरै’ । यह पाठ कुछ अधिक सार्थक जचता है । सिर को उतारकर जमीन पर रख देना, यह हाथ पर रख देने से कहीं अधिक शूर-वीरता और निरहंकारिता
को व्यक्त करता है ।]

`कबीर’ निज घर प्रेम का, मारग अगम अगाध ।
सीस उतारि पग तलि धरै, तब निकट प्रेम का स्वाद ॥9॥

भावार्थ – कबीर कहते हैं -अपना खुद का घर तो इस जीवात्मा का प्रेम ही है । मगर वहाँ तक पहुँचने का रास्ता बड़ा विकट है, और लम्बा इतना कि उसका कहीं छोर ही
नहीं मिल रहा । प्रेम रस का स्वाद तभी सुगम हो सकता है, जब कि अपने सिर को उतारकर उसे पैरों के नीचे रख दिया जाय ।

प्रेम न खेतौं नीपजै, प्रेम न हाटि बिकाइ ।
राजा परजा जिस रुचै, सिर दे सो ले जाइ ॥10॥

भावार्थ – अरे भाई ! प्रेम खेतों में नहीं उपजता, और न हाट-बाजार में बिका करता है यह महँगा है और सस्ता भी – यों कि राजा हो या प्रजा, कोई भी उसे सिर देकर खरीद
ले जा सकता है ।

`कबीर’ घोड़ा प्रेम का, चेतनि चढ़ि असवार ।
ग्यान खड़ग गहि काल सिरि, भली मचाई मार ॥11॥

भावार्थ – कबीर कहते हैं – क्या ही मार-धाड़ मचा दी है इस चेतन शूरवीर ने ।सवार हो गया है प्रेम के घोड़े पर । तलवार ज्ञान की ले ली है, और काल-जैसे शत्रु के सिर पर
वह चोट- पर-चोट कर रहा है ।

जेते तारे रैणि के, तेतै बैरी मुझ ।
धड़ सूली सिर कंगुरैं, तऊ न बिसारौं तुझ ॥12॥

भावार्थ – मेरे अगर उतने भी शत्रु हो जायं, जितने कि रात में तारे दीखते हैं, तब भी मेरा धड़ सूली पर होगा और सिर रखा होगा गढ़ के कंगूरे पर, फिर भी मैं तुझे भूलने
का नहीं ।

सिरसाटें हरि सेविये, छांड़ि जीव की बाणि ।
जे सिर दीया हरि मिलै, तब लगि हाणि न जाणि ॥13॥

भावार्थ – सिर सौंपकर ही हरि की सेवा करनी चाहिए । जीव के स्वभाव को बीच में नहीं आना चाहिए । सिर देने पर यदि हरि से मिलन होता है, तो यह न समझा जाय कि
वह कोई घाटे का सौदा है ।

`कबीर’ हरि सबकूं भजै, हरि कूं भजै न कोइ ।
जबलग आस सरीर की, तबलग दास न होइ ॥14॥

भावार्थ – कबीर कहते हैं -हरि तो सबका ध्यान रखता है,सबका स्मरण करता है , पर उसका ध्यान-स्मरण कोई नहीं करता । प्रभु का भक्त तबतक कोई हो नहीं सकता,
जबतक देह के प्रति आशा और आसक्ति है ।

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