Hindi Poem of Rakesh Khandelwal “Fir kaha sambhav raha ab geet koi gungunau , “फिर कहाँ संभव रहा अब गीत कोई गुनगुनाऊँ ” Complete Poem for Class 10 and Class 12

फिर कहाँ संभव रहा अब गीत कोई गुनगुनाऊँ – राकेश खंडेलवाल

Fir kaha sambhav raha ab geet koi gungunau – Rakesh Khandelwal

 

भोर की हर किरन बन कर तीर चुभती है ह्रदय में और रातें नागिनों की भांति फ़न फ़ैलाये रहतीं दोपहर ने शुष्क होठों से सदा ही स्वर चुराये फिर कहाँ संभव रहा अब गीत कोई गुनगुनाऊँ

प्रज्ज्वलित लौ दीप की झुलसा गई है पाँव मेरे होम करते आहुति में हाथ दोनों जल गये हैं मंत्र की ध्वनि पी गई है कंठ से वाणी समूची कुंड में बस धुम्र के बादल उमड़ते रह गये हैं

पायलों से तोड़ कर सम्बन्ध मैं घुँघरू अकेला ताल पर मैं, अब नहीं संभव रह है झनझनाऊँ

साथ चलने को शपथ ने पाँव जो बाँधे हुए थे चल दिये वे तोड़ कर संबंध अब विपरीत पथ पर मैं प्रतीक्षा का बुझा दीपक लिये अब तक खड़ा हूँ लौट आये रश्मि खोई एक दिन चढ़ ज्योति रथ पर

चक्रवातों के भंवर में घिर गईं धारायें सारी और है पतवार टूटी, किस तरह मैं पार जाऊँ

बँट गई है छीर होकर धज्जियों में आज झोली आस की बदरी घिरे उमड़े बरस पाती नहीं है पीपलों पर बरगदों पर बैठतीं मैनायें, बुलबु हो गई हैं मौन की प्रतिमा, तनिक गाती नहीं हैं

दूब का तिनका बना हूँ वक्त के पाँवो तले मै है नहीं क्षमता हटा कर बोझ अपना सर उठाऊँ

थक गई है यह कलम अब अश्रुओं की स्याही पीते और लिखते पीर में डूबी हुई मेरी कहानी छोड़ती है कीकरों सी उंगलियों का साथ ये भी ढूँढ़ती है वो जगह महके जहाँ पर रातरानी

झर गई जो एक सूखे फूल की पांखुर हुआ मैं है नहीं संभव हवा की रागिनी सुन मुस्कुराऊँ

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