Hindi Poem of Virendra Mishra “Smriti bacho ki“ , “स्मृति बच्चों की” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

स्मृति बच्चों की

Smriti bacho ki

अब टूट चुके हैं शीशे उन दरवाजों के

जो मन के रंग महल के दृढ जड़ प्रहरी हैं

जिनको केवल हिलना डुलना ही याद रहा

मस्तक पर चिंता की तलहटियाँ हीं गहरी हैं

कोई निर्मम तूफ़ान सीढियों पर बैठा

थककर सुस्ताकर अन्धकार में ऊंघ रहा

ऊपर कोई नन्हें बादल का टुकड़ा

कुछ खोकर हर तारे को जैसे सूंघ रहा

यह देख खोजने लगता हूँ मैं भी नभ में

शायद तारों में छुपकर कहीं चमकते हों

मेरे अंतर के वे तारे शीशे जिनको

नभ के तारे चुपचाप छुपाकर रखते हों

लेकिन रजनी के प्रहार बीतते जाते हैं

उस अमर ज्योति के टुकड़े हाथ नहीं आते हैं

वे नयन लौट आते हैं ख़ाली हाथ मगर

नयनों के बिछड़े दीपक लौट नहीं पाते हैं

मैं जलता हूँ इसलिए कि मेरी आँखों में

उन दो नयनों के तारे चमका करते हैं

जो अपनी नन्हीं काया लेकर भस्म हुए

फिर भी जो मन-मस्तक में दमका करते हैं

वे फूल कि जिनके पृथक-पृथक आकर्षण थे

मुरझा भी सकते हैं- सोचा था नहीं कभी

मेरे भविष्य केंद्राकर्षण इतनी जल्दी

कुम्हला भी सकते हैं- सोचा था नहीं कभी

 

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