Hindi Poem of Divik Ramesh “Aakash se jharta lava”,”आकाश से झरता लावा” Complete Poem for Class 9, Class 10 and Class 12

आकाश से झरता लावा

 Aakash se jharta lava

राजनीति नहीं छोड़ती

अपनी माँ-बहिन को भी

जैसे रही है कहावत

कि नहीं छोड़ते कई

अपने बाप को भी ।

ताज्जुब है

नदी की बाढ़ की तरह

मान लिया जाता है सब जायज

और रह लिया जाता है शान्त ।

थोड़ा-बहुत हाहाकार भी

बह लेता है

बाढ़ ही में ।

यह कैसी क़वायद है

कि आकाश से झरता रहता है लावा

और न फ़र्क पड़ता है

उगलती हुई पसीने की आग को

और न फ़र्क पड़ता है

राजनीति के गलियारों में

क़ैद पड़ी ठंडी आहों को ।

यह कैसी स्वीकृति है

कि स्वीकृत होने लगती है नपुंसकता

एक समय विशेष में

खस्सी कर दिए गए एक खास प्रधानमंत्री की ।

कि स्वीकृत होने लगती हैं

सत्ता-विरोधियों की शिखण्डी हरकतें भी ।

मोडे-संन्यासियों के इस देश में

दिशाएँ मज़बूर हैं

नाचने को वारांगनाओं-सी

और धुत्त

बस पीट रहे हैं तालियाँ-वाम भी, अवाम भी।

कहावत है

हमाम में होते हैं सब नंगे-

अपने भी पराए भी ।

अब चरम पर है निरर्थकता

समुद्रों की, नदियों की

जाने

क्यों चाह रहा है मन

कि उम्मीद बची रहे बाक़ी

पोखरों में, तालाबों में

और एकान्त पड़ी नहरों में

झरनों में ।

जाने क्यों

दिख रही है लौ-सी जलती

हिमालय की बर्फ़ों में।

डर है

कहीं अध्यात्म तो नहीं हो रहा हूँ मैं!

हो भी जाऊँ अध्यात्म

एक बार अगर जाग जाएँ पत्ते वृक्षों के ।

जाग जाएँ अगर निरपेक्ष पड़ी वनस्पतियाँ ।

जाग उठे अगर बाँसों में सुप्त नाद ।

अगर जगा सके भरोसा अस्पताल अपनी राहों में

ज़ख़्मी हवाओं का ।

 

 

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